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भाषाद्रव्य की लोक में व्याप्त...
भाषा
जाई भिण्णाई णिसिरति ताई महंतलेटठ्ठकसमाई यदा लोकमध्यस्थो वक्ता भवति तदा तेन निसृष्टानि चउहिं समएहिं लोगंतं पावंति। जाणि पूण अभिण्णाणि भाषापरिणतानि द्रव्याणि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्ष णिसिरति ताणि खुडुलगलेगसमाणाई अंतरा चेव लोकान्तमनुधावंति, जीवसूक्ष्मपुद्गलानामनुश्रेणिगमनात् । विद्धंसमागच्छति ।
(आवच १ पृ १६) द्वितीयसमये तु त एव षट् दण्डा: चतुर्दिक्ष एकैकशोऽनभिन्न रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य बडे पाषाणखंड की श्रेण्या वासितद्रव्यः प्रसरन्तः षट मन्थानो भवंति । तरह चार समय में लोकान्त तक चले जाते हैं । अभिन्न- तृतीयसमये तु पृथक् पृथक् तदन्तरालापूरणात् पूर्णी रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य छोटे पाषाणखण्ड की तरह। भवति लोकः । एवं त्रिभिः समयषिया लोकः स्पृष्टो बीच में ही ध्वस्त हो जाते हैं।
भवति । यदा तु स्वयंभूरमणपरतटवत्तिनि लोकान्ते यो मन्दप्रयत्नो वक्ता स यथारूपाणि शब्दद्रव्याणि अलोकस्यात्यन्तनिकटीभूय भाषको वक्ति त्रसनाड्या वा गृहीतवान् तथारूपाण्येवाभिन्नानि उपजातमन्दशब्दपरि- बहिश्चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि तदा चतुर्भिः णामानि निसृजति । तानि च तथा निसृष्टानि मन्द- समयैरापूर्यते । यदा त्रसनाड्या बहिर्व्यवस्थितो वक्ति तदा प्रयत्ननिसृष्टत्वात् परिस्थूराणि । अत एव तदन्यद्रव्य- एकेन समयेनान्तर्नाडौ शब्दद्रव्याण्यनुप्रविशन्ति, शेषसमयवासनोत्पादपाटवरहितानि । (आवम प ३५)। भावना च पूर्ववत् ।
(आवमवृ प ३६) मन्द प्रयत्न वाला वक्ता जिस रूप में शब्दद्रव्यों को तीन समय में पूरे लोक में व्याप्त ग्रहण करता है, उसी रूप में उनका निसर्जन करता है। शब्दों का परिणमन मन्द होने के कारण उनमें भेद/
जब वक्ता लोक के मध्यभाग में स्थित हो बोलता विस्फोट नहीं होता। वे अभिन्न शब्दद्रव्य स्थूल होते हैं,
_है, तब उससे निसृष्ट भाषा के पुद्गल प्रथम समय में इसलिए उनमें अन्य द्रव्यों को वासित करने की क्षमता हो ।
ही छहों दिशाओं में लोकान्त तक चले जाते हैं, क्योंकि नहीं होती।
जीव और सूक्ष्म पुद्गल अनुश्रेणी में गमन करते हैं। दूसरे यस्तु महाप्रयत्नो वक्ता, स खल्वादानप्रयत्नेनापि समय में ये षट् दण्डरूप में फैले हुए भाषाद्रव्य के पुद्गल भित्त्वैव गृह्णाति, गृहीत्वा च शब्दपरिणाममपि तेषामत्यु- अन्य द्रव्यों से अनुवासित होकर चारों दिशाओं में षट् स्कटमुत्पादयति, उत्पाद्य च निसर्गप्रयत्नेन भूयो भित्त्वा मथानी के रूप में फैल जाते हैं। तीसरे समय में निसृजति । तानि च तथा निसृष्टानि सूक्ष्मत्वादतिप्रभूत- अन्तरालों को आपूरित करते हुए वे पूरे लोक में व्याप्त त्वादत्युत्कटशब्दपरिणामत्वाच्च तदन्यानि बहनि द्रव्याणि हो जाते हैं। वासयन्ति ।
(आवमवृ प ३५, ३६)
२५) चार समय में पूरे लोक में व्याप्त
, तीव्र प्रयत्न वाला वक्ता ग्रहणप्रयत्न में भी भाषाद्रव्यों का भेद - विस्फोट कर ही ग्रहण करता है, उनकी
जब वक्ता स्वयंभूरमण के परतटवर्ती भाग -लोकान्त
में, अलोक के अत्यन्त निकट स्थित हो बोलता है, अथवा शब्दपरिणति भी उत्कट होती है और निसर्ग-प्रयत्न में।
वसनाड़ी के बाहर किसी दिशा में स्थित हो बोलता है, पुनः उन द्रव्यों को भिन्न कर ही निसर्जन करता है।
तब भाषा के पुद्गल चार समय में पूरे लोक में व्याप्त भिन्न रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य सूक्ष्म और प्रभूत होते हैं,
हो जाते हैं। उनकी शब्दपरिणति भी अत्यंत उत्कट होती है, इसलिए
त्रसनाड़ी के बाहर किसी भी दिशा में स्थित उनमें अन्य बहुत द्रव्यों को वासित करने की क्षमता होती है।
भाषक के भाषाद्रव्य प्रथम समय में त्रसनाडी में प्रवेश पढमसमए च्चिय जओ मुक्काइं जंति छद्दिसि ताई।
करते हैं। शेष तीन समय में लोक को पूरित करते हैं। बितियसमयम्मि ते च्चिय छदंडा होति छम्मथा ।।
पांच समय में पूरे लोक में व्याप्त मंथंतरेहिं तईए समते पुन्नेहिं पूरिओ लोगो।
सनाड़ी के बाहर विदिशा में स्थित भाषक के चउहि समएहिं पूरइ लोगते भासमाणस्स ।। भाषाद्रव्य पहले समय में दिशा में आते हैं, दूसरे समय में दिसि विद्रियस्स पढमोऽतिगमे ते चेव सेसया तिन्नि। त्रसनाड़ी में प्रवेश करते हैं। शेष तीन समयों में लोक विदिसि ट्रियस्स समया पंचातिगमम्मि जं दोणि ॥ को आपूरित करते हैं।
(विभा ३८४-३८६)
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