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एकेन - आद्येन समयेन गृह्णाति न तु निसृजति । द्वितीयसमयादारभ्य निसर्गस्य प्रवृत्तेः प्रथमसमये पूर्वगृहीतद्रव्यासम्भवात् तथा एकेन पर्यन्तवर्त्तिना समयेन निसृजति -- निसृजत्येव न तु गृह्णाति भाषणादुपरमात् । अपान्तरालवत्तिषु समयेषु ग्रहण निसर्गी ।
स्थापना -
भाषा
·
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( आवमवृप ३३, ३४)
जीव प्रथम समय में भाषावर्गणा के पुद्गल ग्रहण करता है, निसर्जन नहीं करता । निसर्जन दूसरे समय में प्रारम्भ होता है, क्योंकि प्रथम समय में पूर्वगृहीत भाषाद्रव्य नहीं होते। जिस क्षण वक्ता विराम लेता है, उस अंतिम क्षण में भाषाद्रव्यों का केवल निसर्जन होता है, ग्रहण नहीं होता । अन्तरालवर्ती क्षणों में ग्रहण और निसर्ग दोनों होते हैं ।
५. शब्द-श्रवण की प्रक्रिया
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भासासमसेढीओ, सद्दं जं सुणइ मीसयं सुणइ । वढी पुस, सुणेइ नियमा
पराधाए ॥
( नन्दी ५४|५ ) जो श्रोता वक्ता की समश्रेणी में स्थित है, वह मिश्रित शब्द सुनता है । विषमश्रेणी में स्थित श्रोता नियमतः भाषाद्रव्यों से वासित शब्दों को सुनता है । argharaणाओ पडघायाभावओऽनिमित्ताओ । समयं तराणवत्थाणओ य मुक्काई न सुणेइ ॥ ( विभा ३५४ ) १. वक्ता द्वारा मुक्त भाषाद्रव्यों की गति अनुश्रेणी में होती है ।
२. वे सूक्ष्म होते हैं, इसलिए उनके प्रतिघात का कोई निमित्त नहीं बनता ।
३. भाषा के द्रव्य प्रथम समय में समश्रेणी में ही जाते हैं । द्वितीय समय में उनके द्वारा वासित द्रव्य विषमश्रेणी में जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि एक समय के पश्चात् वे मूल रूप में अवस्थित नहीं रहते ।
इन तीन कारणों से विषमश्रेणी में स्थित श्रोता वक्ता द्वारा मुक्त शब्दों को नहीं सुनता। वह केवल मुक्त शब्द से वासित शब्द को ही सुनता है ।
भाषाद्रव्य की लोक में ....
६. भाषा द्रव्य की तीव्रतम गति
सेढी पएसपंती वदतो सव्वस्स छद्दिस ताओ । जासु विमुक्का धावइ भासा समयम्मि पढमम्मि || ( विभा ३५२ ) श्रेणयो नाम क्षेत्र प्रदेशपंक्तयोऽभिधीयन्ते । ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्यन्ते । यासूत्सृष्टा सती भाषा प्रथमसमय एव लोकान्तमनुधावति ।
( नन्दीमवृ ११८६ ) आकाश की प्रदेश पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । वे श्रेणियां सब वक्ताओं के छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ) में होती हैं । उनमें उत्सृष्ट भाषाद्रव्य प्रथम समय में ही लोकान्त तक चले जाते हैं ।
७. भाषाद्रव्य की लोक में व्याप्त होने की प्रक्रिया चउहि समएहि लोगो, भासइ निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए ||
( आवनि ११ )
चार समय में भाषाद्रव्य पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं । लोक का अंतिम छोर भाषाद्रव्यों की व्याप्ति का अंतिम छोर है ।
कोइ मंदपयत्तो निसिरइ सयलाई सव्वदव्वाइं । अन्नो तिव्वपयत्तो सो मुंचइ भिदिउं ताई || गंतुमसंखेज्जाओ अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिज्जति धंसमिति य संखेज्जे जोअणे गंतुं ॥ भिन्नाई सुहुमयाए अनंतगुणवड्ढिआई लोगंतं । पावंति पूरयंति य भासाए निरंतरं लोगं ॥ (विभा ३५० - ३८२ )
मन्द प्रयत्न वाला वक्ता सब भाषा द्रव्यों का सकल ( अभिन्न) रूप में निसर्जन करता है । वे मन्द प्रयत्न से निसृष्ट भाषाद्रव्य असंख्येय अवगाहना वर्गणा तक जाकर भिन्न - खंडित हो जाते हैं । संख्येय योजन तक जाकर वे ध्वस्त हो जाते हैं - भाषारूप को छोड़ देते हैं ।
तीव्र प्रयत्न वाला वक्ता भाषाद्रव्यों का भेद -- विस्फोट कर उनका निसर्जन करता है । वे सूक्ष्मत्व और अनन्त गुण वृद्धि के कारण लोकान्त तक चले जाते हैं । उनके आघात से प्रभावित भाषाद्रव्य की संहति सम्पूर्ण लोक को आपूरित कर देती है ।
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