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कान्दी आदि भावनाएं
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भावना
२. ज्ञान आदि भावनाएं
एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य । पुव्वकयब्भासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ । भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावेत्तु अप्पयं ।। ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ ।।
(उ १९१९४) (आवहाव २ पृ ६७) इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विशुद्ध जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले भावनाओं के द्वारा आत्मा को भलीभांति भावित करो। अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर
या है, वह ध्यान करन का याग्यता प्राप्त कर ३.कान्दी आदि लेता है। भावनाएं चार हैं -
कंदप्पमाभिओगं, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च । १. ज्ञान भावना, २. दर्शन भावना, ३. चारित्र भावना, ४. वैराग्य भावना।
एयाओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया होति ।।
(उ ३६।२५६) णाणे निच्चब्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च ।
कांदी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही तथा आसुरी नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ ।।
-----ये पांच भावनाएं दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के संकाइदोसरहिओ पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ ।
समय ये सम्यग्दर्शन आदि की विराधना करती हैं। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणं मि ।।
कान्दी भावना नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं ।
कंदप्पकोक्कुइयाइं तह, सीलसहावहासविगहाहिं । चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।।
विम्हावेंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ।। सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य ।
(उ ३६।२६३) वेरग्गभावियमणो झाणंमि सूनिच्चलो होइ॥
जो कामकथा करता रहता है, दूसरों को हंसाने की (आवहावृ २ पृ. ६७,६८)
चेष्टा करता रहता है, शील, स्वभाव, हास्य और ज्ञान भावना-जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता है, ज्ञान
विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करता रहता है, में मन स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ की
वह कांदपी भावना का आचरण करता है। विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से
आभियोगी भावना परमार्थ को जान लेता है, वह सुस्थिर चित्त
मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पति । से ध्यान कर सकता है।
सायरसइढिहेउं, अभिओगं भावणं कूणइ ।। दर्शन भावना-जो अपने को शंका आदि दोषों से रहित,
(उ ३६।२६४) प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर
जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और लेता है, वह दर्शनशुद्धि (दृष्टि की समी
भूति-कर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना चीनता) के कारण ध्यान में अभ्रान्त
का आचरण करता है। चित्त वाला हो जाता है।
भूत्या-भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा कर्मचारित्र भावना--- नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए रक्षार्थ वसत्यादेः परिवेष्टनं भूतिकर्म । कर्मों का निर्जरण और शुभकर्मों का
(उशावृ प ७१०) ग्रहण-इस चारित्र भावना से बिना भूति का अर्थ है-राख, मिट्टी अथवा धागा । प्रयत्न किए भी ध्यानावस्था प्राप्त हो मकान, शरीर, भंडोपकरण आदि की रक्षा के लिए जाती है।
राख, मिट्री अथवा धागे के द्वारा उनका परिवेष्टन वैराग्य भावना-जो जगत् के स्वभाव को जानता है, करना भूति-कर्म कहलाता है।
निस्संग (अनासक्त) है, अभय और किल्विषिकी भावना आशंसा से विप्रमुक्त है, वह वैराग्य
नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहणं । भावना से भावित मन वाला होता है। माई अवण्णवाई, किब्बिसियं भावणं कूणइ ॥ वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो
(उ ३६।२६५) जाता है।
जो ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं
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