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क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा
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भाव
गये हैं --शारीरिक वेग और मानसिक वेग। शारीरिक २. दर्शनावरणीय कर्म-चक्षुदर्शनावरण आदि नौ वेग को नहीं रोकना चाहिये। मानसिक वेग को रोकना प्रकृतियों का क्षय । आवश्यक है।)
३. वेदनीय कर्म-सात और असात वेदनीय का क्षय । ५. औपशमिक भाव के प्रकार
४. मोहनीय कर्म-दर्शनमोह और चारित्रमोह की
अठाईस प्रकृतियों का क्षय। उवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–उवसमे य
५. आयुष्य कर्म-नैरयिक आदि चार प्रकतियों का उवसमनिप्फण्णे य।
(अनु २७७)
क्षय। औपशमिक के दो प्रकार हैं-उपशम और उपशमनिष्पन्न ।
६. नाम कर्म-शुभ नाम और अशुभ नाम का क्षय ।
७ गोत्र कर्म-उच्च गोत्र और नीच गोत्र का क्षय । उवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकोहे उवसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतपेज्जे.... ८. अन्तराय कर्म-दानान्तराय आदि पांच प्रकृतियों उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंत- का क्षय । कसायछउमत्थवीयरागे।
(अनु २७९) ८. क्षायिक भाव विकल्पातीत उपशम-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं-उपशांत क्रोध, ..."खयम्मि अविगप्पमाहंसु । उपशान्त मान, उपशान्त माया, उपशान्त लोभ, उपशान्त क्षायिकगुणसमुदायं अविकल्पं एगलक्षणं सव्वुत्तमं । प्रेम "औपशमिकी सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिकी चारित्र
(आवनि ५७२ च १ ३३०) लब्धि और उपशान्त कषायवाला छद्मस्थवीतराग ।
कर्मों के क्षय से निष्पन्न गुणों में कोई विकल्प या
भेद नहीं होता। वे सब एक समान लक्षण वाले और ६. क्षायिक भाव की परिभाषा
सर्वोत्तम होते हैं। क्षयः कर्मणामत्यन्तोच्छेदः तेन निवृत्तः क्षायिकः।
(उशावृ प ३३)
___६. क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा कर्मों का आत्यन्तिक उच्छेद होना क्षय है। उससे नण खीणम्मि उइण्णे सेसोवसमे खओवसमो। होने वाली आत्मा की अवस्था क्षायिक भाव है।
(विभा १२९१) अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खए णं। (अनु २८१) तस्स तस्स कम्मस्स सव्वधातिफडडगाणं उदयक्खयात्,
क्षय आठों ही कर्म-प्रकृतियों का होता है। तेषामेव सदुपशमात् देशघातिफड्डगाणं उदयात् खतो७. क्षायिक भाव के प्रकार
वसमितो भावो भवति । (आवचू १ पृ ९७)
क्षयोपशम: देशघातिरसस्पर्द्धकानामुदये सति भवति ____खइए दुविहे पण्णत्ते, त जहा-खए य खनिप्फण्णे
न सर्वघातिरसस्पर्द्ध कानाम् । कर्मणां प्रत्येकमनन्ताय।
(अनु २८०)
नन्तानि रसस्पर्द्ध कानि भवन्ति। (नन्दीमवृ प ७७) क्षायिक के दो प्रकार हैं-क्षय और क्षय-निष्पन्न ।
(ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय या खयनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाखीण
अन्तराय) कर्म के उदय प्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय आभिणिबोहियनाणावरणे .... खीणचक्खुदंसणावरणे...
और विद्यमान (अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले) खीणसायवेयणिज्जे""खीणदंसण-मोहणिज्जे खीणचरित्त
स्पर्धकों का उपशम होने पर क्षयोपशमभाव होता है। मोहणिज्जे"खीणनेरइयाउएखीणसुभनामे खीण
इसमें देशघाति स्पर्धकों का उदय रहता है। यह सर्वअसुभनामे"खीणउच्चागोए खीणनीयागोएखीण
घाति रसस्पर्धकों के उदयकाल में नहीं होता। प्रत्येक दाणंतराए"""
(अनु २८२)
कर्म के अनंत अनंत रसस्पर्धक होते हैं। इसमें क्षय और क्षय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं
उपशम की प्रक्रिया निरन्तर चाल रहती है। १. ज्ञानावरणीय कर्म-मतिज्ञानावरण आदि पांच (क्षयोपशम शब्द में जो उपशम पद है, उसके दो प्रकृतियों का क्षय ।
रूप बनते हैं
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