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भाव
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औपशमिक भाव की परिभाषा
आदि अशुभ प्रकृतियों के विपाक का अनुभव करना उदय काय छह-पृथ्वी, अप्, तेजः, वायु, वनस्पति, त्रस । है। उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक कषाय चार-क्रोध, मान, माया, लोभ । भाव है।
वेद तीन-स्त्री, पुरुष, नपुंसक । ३. औदयिक भाव के प्रकार
लेश्या छह-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म, शुक्ल। ____ उदइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–उदए य उदय
मिथ्यादृष्टि, अविरत, असंज्ञी, अज्ञानी,
आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, निप्फण्णे य।
(अनु २७२)
असिद्ध, अकेवली। औदयिक के दो प्रकार हैं
अजीवोदय-निष्पन्न उदय-उदयावलिका में कर्मदलिक का विपाक।
उदय-निष्पन्न -उदय में आकर किसी अन्य पर्याय अजीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाको जन्म देने वाला औदयिक भाव ।
ओरालियं वा सरीरं ओरालियसरीरपओगपरिणामियं वा
दव्वं, वे उव्वियं वा सरीरं वेउव्वियसरीरपओगपरिणामियं उदय-निष्पन्न के प्रकार
वा दव्वं"पओगपरिणामिए वण्णे गंधे रसे फासे । उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा----जीवोदय
(अनु २७६) निष्फण्णे य अजीवोदयनिप्फण्णे य। (अनु २७४)
अजीवोदय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं-औदारिक उदय-निष्पन्न के दो प्रकार हैं-जीवोदय-निष्पन्न और
आदि पांच शरीर, पांच शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित अजीवोदय-निष्पन्न ।
पुद्गल द्रव्य, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ उदयणिप्फण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निप्फा- स्पर्श। दितो सो उदयणिफण्णो"तत्थ जीवे कम्मोदएण जो
४. औपशमिक भाव को परिभाषा जीवस्स भावो णिव्वत्तितो जहा रइते इत्यादि, अजीवेसु
विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्युदयस्य जहा ओरालियदव्ववग्गणेहितो ओरालियसरीरप्पयोगे दव्वे
विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्त औपशमिकः । घेत्तणं तेहिं ओरालियसरीरे णिव्वत्तेइ, णिव्वत्तिए वा तं उदयनिप्फण्णो भावो। (अनुचू पृ ४२)
(उशाव प ३३)
मोहनीय कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय- इन कर्म के उदय से जो अवस्था निष्पन्न होती है, वह
दोनों प्रकार के उदय को रोकना उपशम है और उससे उदय-निष्पन्न है। जैसे - नरकगतिनामकर्म के उदय से
होने वाली आत्मा की अवस्था औपशमिक भाव है। जीव की नैरयिक अवस्था निष्पन्न होती है। यह जीव
मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमे णं। (अनु २७८) द्रव्य की उदय-निष्पन्नता है।
उपशम केवल मोहनीयकर्म का होता है। औदारिक द्रव्यवर्गणा से औदारिक शरीर के प्रायोग्य
(इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर का निर्माण
संवेगात्मक और विकारक हैं इसलिए उनका उपशम करना अजीवद्रव्य उदय-निष्पन्न है।
किया जा सकता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय जीवोदय-निष्पन्न
कर्म की प्रकृतियां आवारक तथा अन्तराय कर्म की प्रकृजीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-- तियां प्रत्युत्पन्नविनाशी और आगामी प्रतिरोधक हैं नेरइए "पुढविकाइएकोहकसाई ...'इत्थिवेए""कण्ह- इसलिए उनका उपशमन नहीं होता। अधाति कर्म का लेसे .."मिच्छदिदी अविरए असण्णी अन्नाणी आहारए उपशम नहीं होता । जैसे- वेदनीय कर्म सात या असात छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे अकेवली।
के रूप में निरन्तर भोगा जाता है। आयुष्य कर्म भी
(अनु २७५) निरंतर भोगा जाता है । जीवोदय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं
उपशम की तुलना मनोविज्ञान के Supression से गति चार-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देव। की जा सकती है। आयुर्वेद में दो प्रकार के वेग बतलाए
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