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ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप
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ब्रह्मचर्य
चित्तभित्ति न निझाए, नारिं वा सुअलंकियं ।
७. प्रणीत पान-भोजन । भक्खरं पिव दळूणं दिट्टि पडिसमाहरे ॥
८. मात्रा से अधिक पान-भोजन ।
(द ८।५४) ९. शरीर को सजाने की इच्छा। चित्रभित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति) या १०. दुर्जय कामभोग–ये दस स्थान आत्मगवेषी आभूषणों से सुसज्जित स्त्री को टकटकी लगाकर न देखे । मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान हैं। उस पर दृष्टि पड़ जाए तो उसे वैसे ही खींच ले जैसे ० गृहनिषद्या से ब्रह्मचर्य में हानि। (द्र. आचार) मध्याह्न के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच जाती है। ० स्त्रीकथा के प्रकार।
(द्र. कथा) ६. ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थानों की उपेक्षा के परिणाम ० प्रमाणातिरेक आहार के परिणाम । (द्र आहार) ____ बंभचेरे संका वा, कंखा वा वितिगिच्छा वा समु- ८. ब्रह्मचर्य महावत का स्वरूप प्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, चउत्थे भंते ! महव्वए मेहणाओ वेरमणं । सव्वं दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा भंते ! मेहणं पच्चक्खामि । से दिव्वं वा माणुसं वा धम्माओ भंसेज्जा।
तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहणं सेवेज्जा नेवन्नेहि ब्रह्मचर्य के साधनों की उपेक्षा के दुष्परिणाम
मेहुणं सेवावेज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा १. शंका-ब्रह्मचर्य के पालन में संशय
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए काएणं न २. कांक्षा-अब्रह्मचर्य की अभिलाषा
करेमि न कारवेमि करतं पि अन्न न समणजाणामि । ३. विचिकित्सा-धर्माचरण के प्रति संदेह, चित्त
(द ४।सूत्र १४) विप्लव।
भंते ! चौथे महाव्रत में मैथन से विरमण होता है। ४. भेद -चारित्र का विनाश
शिष्य संकल्प करता है-भंते ! मैं सब प्रकार के मैथन ५. ६. उन्माद और रोग-हठपूर्वक ब्रह्मचर्यपालन (अब्रह्मचर्य) का प्रत्याख्यान करता हूं। से उन्माद या दीर्घकालीन रोग और आतंक
देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तिथंच संबन्धी उत्पन्न होते हैं।
मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से मैथन ७. धर्मभ्रंश-जो इन पूर्व अवस्थाओं से नहीं बच
सेवन नहीं कराऊंगा और मैथुन सेवन करने वालों का पाता, वह केवली-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो
अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन जाता है।
करण तीन योग से -मन से, वचन से, काया सेन ७. ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्न
करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा य मणोरमा । नहीं करूंगा। संथवो चेव नारीणं, तासि इंदियदरिसणं ।।
विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा। कुइयं रुइयं गीयं, हसियं भुत्तासियाणि य ।
उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सूक्करं ।। पणीयं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं ।
(उ १९।२८) गतभूसणमिट्ठ च, कामभोगा य दुज्जया।
कामभोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत
(उ १६।११-१३) को धारण करना बहुत ही कठिन कार्य है। १. स्त्रियों से आकीर्ण आलय ।
अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्टियं । २. मनोरम स्त्रीकथा।
नायरंति मुणी लोए, भेयाययणवज्जिणो । ३. स्त्रियों का परिचय ।
मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । ४. उनकी इन्द्रियों को देखना ।
तम्हा मेहुणसंसग्गि. निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ ५. उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्ययुक्त शब्दों
(द ६।१५,१६) ____ को सुनना।
अब्रह्मचर्य लोक में घोर, प्रमादजनक और दुर्बल ६. भुक्तभोग और सहावस्थान को याद करना। व्यक्तियों द्वारा आसेवित है। चारित्रभंग के स्थान से
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