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ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान
रंसि वा, कुइयसई वा, रुइयसई वा, गीयसई वा, हसिय
हत्थपायपडिच्छिन्नं, कण्णनासविगप्पियं । सई वा, थणियसई वा, कंदियसह वा, विलवियसह वा
अवि वाससइं नारिं, बंभयारी विवज्जए। सुणेत्ता, से निग्गंथे।
(द ८.५५) नो निग्गंथे पूवरयं पूव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से से निग्गथे।
विकल हो वैसी सौ वर्ष की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी नो पणीयं आहारं आहारित्ता हवइ, से निग्गंथे। दूर रहे। नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ, से न चरेज्ज वेससामंते, बंभचेरवसाणए । निग्गंथे ।
बंभयारिस्स दंतस्स, होज्जा तत्थ विसोत्तिया ।। नो विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गंथे ।
अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ, से निग्गंथे ।
होज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि य संसओ ॥ (उ १६।सूत्र १-१२)
(द ५११९, १०) ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान
ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्या-बाड़े के समीप १. जो एकांत शयन और आसन का सेवन करता
न जाए। वहां दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका है, वह निर्ग्रन्थ है। वह स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन न करे।
हो सकती है -साधना का स्रोत मुड़ सकता है । २ स्त्रियों के बीच कथा न कहे।
अस्थान में बार-बार जाने वाले के (वेश्याओं) का ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे।
संसर्ग होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को श्रामण्य में सन्देह हो सकता है। दृष्टि गड़ाकर न देखे।
समरेसु अगारेसु, संधीसु य महापहे । ५. स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलाप
एगो एगित्थिए सद्धि, नेब चिट्ठे न संलवे ॥ आदि के शब्द न सुने ।
(उ १।२६) ६. पूर्व-क्रीड़ाओं का अनुस्मरण न करे।
कामदेव के मन्दिरों में, घरों में, दो घरों के बीच ७. प्रणीत आहार न करे।
की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली ८. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए ।
स्त्री के साथ न खड़ा रहे और न संलाप करे । ९. विभूषा न करे।
न रूवलावण्णविलासहासं, १०. शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न
न जंपियं इंगियपेहियं वा।
इत्थीण चित्तंसि निवेस इत्ता, जहा कुक्कुडपोयस्स, निच्चं कुललओ भयं ।
दठ्ठ ववस्से समणे तवस्सी।। एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ॥
अदसणं चेव अपत्थणं च, (द ८१५३)
अचितण चेव अकित्तणं च । जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को सदा बिल्ली से भय
इत्थीजणस्सारियाणजोग्गं, होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय
हियं सया बम्भवए रयाणं ।। होता है। जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था।
(उ ३२।१४,१५) एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे,
तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, न बंभयारिस्स खमो निवासो हास्य, मधुर. आलाप, इङ्गित और चितवन को चित्त में
(उ ३२।१३) रमाकर उन्हें देखने का संकल्प न करे । जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना जो सदा ब्रह्मचर्य में रत है, उसके लिए स्त्रियों को न अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास देखना, न चाहना, न चितन करना और न वर्णन करना ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता।
हितकर है तथा आर्यध्यान-धर्म्यध्यान के लिए उपयुक्त है।
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