________________
ब्रह्मचर्य
भगवान्
बचने वाले मुनि उसका आसेवन नहीं करते ।
इसलिए साधक जीवनचर्या के प्रत्येक अंग मे-सामायिक ___अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान् दोषों की आदि प्रत्येक आवश्यक कार्य करने से पहले गुरु को राशि है । इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन के संसर्ग का वर्जन भंते ! शब्द से संबोधित करता है। भंते शब्द की विविध करते हैं।
कोणों से व्याख्या की गई है। देखें विभा ३४३९
३४७४)। ९. ब्रह्मचर्य महावत की भावना
गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए तस्स णं इमाओ पंच भावणाओ भवंतिणो पाण
एवमाहुतस्स भंते !""जहा जे वि इमम्मि काले ते पि भोयणं अतिमायाए आहारेत्ता भवति"अविभूसाणुवाई....
वताई पडिवज्जमाणा एवं भणंति-तस्स भंते ! णो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइं निझाइत्ता
(दअच पृ ७८) भवति .... णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताइं सयणासणाई
भंते ! -- इस सम्बोधन की उत्पत्ति के विषय में सेवेत्ता भवति" णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति ।
चूर्णिकार कहते हैं(आव २ पृ १४५,१४६)
गणधरों ने भगवान से अर्थ सुनकर व्रत ग्रहण किये, ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं -
उस समय उन्होंने 'भंते' शब्द का व्यवहार किया। तभी १. मात्रा से अधिक और प्रणीत आहार न करना।
से इसका प्रयोग गुरु को आमन्त्रण करने के लिए होता २. विभूषा न करना। ३. स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन न करना।
आ रहा है। इसका पर्याय शब्द है-भदन्त । ४. स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और
. भदि कल्लाणसुहत्थो धाऊ तस्स य भदंतसद्दोऽयं ।
स भदंतो कल्लाणो सुहो य कल्लं किलारुग्गं ।। आसन का वर्जन करना। ५. स्त्रीकथा का वर्जन करना।
तं तच्चं निव्वाणं कारण कज्जोवयारओ वावि ।
तस्साहणमणसद्दो सहत्थो अहव गच्चत्थो । १०. ब्रह्मचर्य के परिणाम
(विभा ३४३९, ३४४०) देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा।
'भदि' कल्याणे सुखे च'-इस धातु से भदंत शब्द बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ।
निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-कल्याण, सुख । जो (उ १६।१६)
कल्याण और सुख का प्रदाता है, वह है भंते -भदंत उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस
अर्थात् आचार्य, गुरु । कल्याण में दो शब्द हैं --कल्य और और किन्नर-ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर
अण । कल्य का अर्थ है-आरोग्य अर्थात् निर्वाण अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
निर्वाण के साधनभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्र । 'अण' का अर्थ भंते-भंते ! , गुरु, पूज्य।
है प्राप्त कराना । सुख अर्थात् निर्बाध सुख, मोक्षसुख । भंते ! इति भगवतो आमंतणं। (दअचू पृ ७८) भदन्त का अर्थ है-पूज्य । इसका तात्पर्यार्थ है- वे
गुरु, जो निर्वाण और निर्बाध सूख की प्राप्ति में भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम् । भदन्त भवान्त भयान्त
निमित्तभूत बनते हैं। इति साधरणा श्रुतिः । "एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्ति: साध्वीति ज्ञापनार्थम् । (दहावु प १४४)
भगवती- व्याख्याप्रज्ञप्ति, पांचवां अंग। ___ 'भंते' शब्द के संस्कृत रूप तीन हैं-भदन्त, भवान्त
(द्र. अंगप्रविष्ट) और भयान्त।
भगवान् ज्ञानी, ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न । यह भगवान् अथवा गुरु का संबोधन है। व्रतग्रहण
इस्सरिय-रूव-सिरि-जस-धम्म-पयत्ता मया भगाभिक्खा । गुरु के साक्ष्य से होता है, इसलिए शिष्य, गुरु को संबो- ते तेसिमसामण्णा संति जओ तेण भगवंते ।। धित कर अपनी भावना का निवेदन करता है।।
(विभा १०४८) (गुरुसाक्षी से किये गये संकल्प का स्थिरीकरण, ऐश्वर्य, रूप, श्री, यश, धर्म और प्रयत्न ये छह भग सम्यक परिपालन और निर्वहन सुकर हो जाता है, कहलाते हैं। जिनमें ये छहों असामान्य रूप से पाये जाते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org