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________________ प्रायश्चित्त अपराध (नियमों का अतिक्रमण ) होने पर आत्मा मलिन होती है । उसकी विशोधि के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है। अपराध शल्य है । शल्य के उद्धरण के लिए जो किया जाता है वह प्रायश्चित्त है । आठों कर्म पाप हैं। उनके रहते निर्वाण नहीं होता । उनके उन्मूलन के लिए जो किया जाता है। वह प्रायश्चित है । ३. प्रायश्चित्त के प्रकार आलोयणा रिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । (उ ३०|३१) पायच्छित्तं दसविहं तं जहा - आलोयणं, पडिक्कमणं, तदुभयं विवेगो, वियोसग्गो, तवो, छेदो, मूलं, अणवट्टप्पो, पारंचिओ । (दअचू पृ १४) ४६४ प्रायश्चित्त के दस प्रकार आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । प्रतिक्रमण - किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' ऐसा कहना । तदुभय आलोचना एवं प्रतिक्रमण – दोनों करना । विवेक - अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना । तप - उपवास आदि करना । छेद-संयम - काल को छेदकर कम कर देना । मूल - पुनः व्रत्तारोपण करना । अनवस्थाप्य तपस्या पूर्वक व्रतारोपण करना ! पारांचित - अवहेलनापूर्वक व्रतारोपण करना । ४. प्रायश्चित्त के स्थान परोपरस्स वायणपरियदृणवत्थदाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओत्ति आलोयणारिहं । पडिक्कमणं पुण पवयणमादिसु आवस्सगकंमे वा सहसा अतिक्कम पडिचोतितो सयं वा सरितूण मिच्छादुक्कडं करेति एवं तस्स सुद्धी । आउत्तेण मूलुत्तरगुणातिक्कम संदेहे आलोय पक्किममुभयं । आहारातीण उग्गमादिअसुद्वाणं गहिताणं पच्छा विष्णाताणं संपत्ताण वा विवेगो परिच्चागो । Jain Education International वा कए विओसग्गो कातुरसग्गो गमनागमणसुविणण ईसंतरणादिसु । तवा मूलुत्तरगुणातियारे पंचराति दियाति छम्मासावसाणमणेकधा । प्रायश्चित्त के स्थान छेदो अवराधो पंचएण सासणविरुद्धादिसमायारेण वा तवारिहमतिक्कतस्स पंचराइं दियादिपव्वज्जाविच्छेदणं । मूलं पगाढतराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति । अणवट्ठो मूल च्छेदाणंतरं केणति कालविहिणा पुणो दिक्खिज्जति । पारंचितो खेत्तातो देसातो वा णिच्छुब्भति । छेदमूल अणवट्टपारांचिताणि देसकाल पुरिससामत्यादी नि पडुच्च दीज्जति । ( आवचू २ पृ २४६, २४७ ) प्रायश्चित्त के दस स्थान १ आलोचना - गुरु को सूचित किए बिना परस्पर वाचना, परिवर्तना करने पर तथा वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने पर गुरु को निवेदन करना । ३. प्रतिक्रमण प्रवचन आदि अथवा आवश्यक कार्यों में सहसा नियमों का अतिक्रमण होने पर दूसरों से प्रेरित हो या स्वयं स्मृति कर 'मिच्छामि दुक्कडं ' करना । ३. तदुभय-मूलगुण अथवा उत्तरगुणों के अतिक्रमण में संदेह होने पर अथवा जानदूझकर अतिक्रमण करने पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ४. विवेक - उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करने के पश्चात् जानकारी होने पर उस आहार का विसर्जन करना विवेक प्रायश्चित्त है । ५. व्युत्सर्ग- गमनागमन, स्वप्न, नदीसंतरण आदि प्रसंगों पर कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। ६. तप मूलगुण- उत्तरगुण में अतिचार होने पर अतिचार के अनुरूप तप करना तप प्रायश्चित्त है । इसका कालमान जघन्य पांच दिन-रात तथा उत्कृष्ट छह मास है । ७. छेद - अपराधों का उपचय और शासनविरुद्ध समाचरण होने पर तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर तथा प्रव्रज्या के पांच दिन आदि का छेद करना, संयमपर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है । ८. मूल - प्रगाढतर अपराध होने पर संयमपर्याय का मूल से विच्छेद करना - नई दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है । ९. अनवस्थाप्य - एक निश्चित अवधि के बाद पुनः दीक्षा देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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