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प्रवचन-माता
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प्रायश्चित्त
प्रवचन-माता-पांच समिति और तीन गुप्ति का वचनात्मकश्रुत गृहीत हो जाता है । द्वादशांग प्रवचन संयुक्त नाम ।
उससे बहिर्भूत नहीं है। अट्ट पवयणमायाओ समिई गुत्ति तहेव य ।"
अथवा पांच समितियां और तीन गुप्तियां चारित्र एयाओ अटुसमिईओ समासेण वियाहिया।
रूप हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अविनाभावी संबंध दुवालसंग जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं ॥
है। इन तीनों के अतिरिक्त द्वादशांगी कुछ है ही नहीं,
(उ २४११.३) इसलिए इन आठों में सारा प्रवचन समाया हआ है। समितिगुप्तिष प्रवचनं मातं स्थितमित्यर्थः ।
समिति-गुप्ति का स्वरूप (द्र. ममिति, गुप्ति)
(उच पृ २६६) प्रायश्चित्त-दोष-विशुद्धि का उपाय। यदा तु माय त्ति पदस्य मातर इति संस्कारस्तदा"" |
१.प्रायश्चित्त के निर्वचन भावमातरस्तु समितयः, एताभ्यः प्रवचनप्रसवात्।
२. प्रायश्चित्त की परिभाषा (उशाव प ५१३, ५१४) * प्रायश्चित्त : तप का एक भेद
(द्र. तप) पांच समिति और तीन गुप्ति-ये आठ प्रवचन
३. प्रायश्चित्त के प्रकार माताएं हैं। इनमें जिनभाषित द्वादशांग रूप प्रवचन
४. प्रायश्चित्त के स्थान समाया हुआ है।
५. प्रायश्चित्त के परिणाम ___'मायाओ' शब्द के 'माता:' और मातरः'-~-ये दो
* आलोचना प्रायश्चित्त संस्कृत रूप किये जा सकते हैं । पहले में 'समाने' और
(द. आलोचना) दूसरे में 'मां' का अर्थ है । इन आठ समितियों से प्रवचन
* प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त
(द्र. प्रतिक्रमण) का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें प्रवचन-माता कहा जाता १. प्रायश्चित्त के निर्वचन
पावं छिदति जम्हा पायच्छित्तं तु भण्णइ तेणं । समितियो में द्वादशांग का समवतरण
पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ अट्ठसुवि समिईसु अ दुवालसंग समोअरइ।...
(आवनि १५०८)
पायच्छित्तकरणं-प्राय इति बाहुल्यस्याख्या, चित्त ईर्यासमिती प्राणातिपातविरमणवतमवतरति,
इति जीवितस्याख्या । प्रायश्चित्तं सोधयतीति तद्वत्तिकल्पानि च शेषतानि तत्रैवान्तर्भावमुपयान्ति,
प्रायश्चित्तं । प्रशस्तं वा चित्तस्य विशुद्धिकारणमिति वा तेषु च न तदस्ति यन्न समवतरति।।
प्रायश्चित्तं, वा अथवा 'चिती संज्ञाने' प्रायशः वितथभाषासमितिस्तु सावधवचनपरिहारतो निरवद्यवचो
माचरितमर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तं । भाषणात्मिका तया च वचनपर्यायः सकलोऽप्याक्षिप्त एव,
(आव २ पृ २५१) न च तदबहिर्भतं द्वादशाङ्गमस्ति, यद्वा सर्वा अप्यमू- जो पापकर्मों को क्षीण करता है, वह प्रायश्चित्त है। चारित्ररूपाः ज्ञानदर्शनाविनाभावि च चारित्रं, न चैतद् . जो प्रचुरता से चित्त-आत्मा का विशोधन करता त्रयातिरिक्तमन्यदर्थतो द्वादशामिति सर्वास्वप्येतासु है, वह प्रायश्चित्त है। प्रवचनं मातमुच्यते । (उनि ४५९ शाव प ५१४, ५१५) ० जो चित्तविशुद्धि का प्रशस्त हेतु है, वह प्रायश्चित्त है।
__ आठ प्रवचन-माताओं में जिनभाषित द्वादशांगी . असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है। समाई हुई है--
२. प्रायश्चित्त को परिभाषा • ईर्या समिति में प्राणातिपातविरमण व्रत का अवतरण अवराहे पायच्छित्तं कातव्वं.."अवराहेण मलिणत्तणं होता है। शेष सारे व्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं, भवतीति तद् विशुद्धिः कार्या."अवराहो सल्लं भवति, इसलिए उनका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है। तत उद्धरेतव्वं.'अविहंपि कम्मं पावं जेण थोवेवि संते भाषा समिति में सावधवचन का परिहार होता है। व्वाणगमणं णत्थि, तेण तं अटविहंपि कम्मं णिग्यातेवह निरवद्यवचन रूप होती है। इसमें सारा तव्वं "तस्स पायच्छित्तस्स करणं। (आवच २ पृ २५१)
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