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प्रवचन
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प्रवचन के प्रभावक
१. प्रवचन के अर्थ
० प्रवचन आदि वचन है अथवा शिवप्रापक वचन है, पवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं । (नन्दीच पृ १२) अतः इसे प्रवचन कहा गया है । प्रोच्यन्ते अनेन जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम् " ३. निर्ग्रन्थप्रवचन का स्वरूप और परिणाम प्रवचनं द्वादशांग, तदुपयोगानन्यत्वाद् वा संघः ।
नमो चउवीसाए तित्थगराणं उसभादिमहावीरपज्ज(उचू पृ १)
वसाणाणं इणमेव निग्गंथ पावयणं सच्चं अणुतरं केवलं प्रवचन का अर्थ है-द्वादशांग गणिपिटक । द्वादशांग
पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्गं का आधार है संघ और उसका उपयोग भी संघसापेक्ष
निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहै, अतः संघ को प्रवचन कहा गया है।
हीणमग्गं । एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति सुयमिह जिणप्पवयणं तस्सुप्पत्ती।
परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । तं धम्म सहहामि जिणगणहरवयणाओ"|
पत्तियामि रोएमि फासेमि अणुपालेमि। (आव ४।९) एगट्रियाणि तिन्नि उ पवयण सूत्तं तहेव अत्थो य ।"
___मैं ऋषभ से महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकरों ..."सामन्नं सुयनाणं विसेसओ सुत्तमत्थो य ।।
को नमस्कार करता हूं। यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य, (विभा १३६५-१३६७)
अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष की ओर ले जाने वाला जिनप्रवचन श्रुत कहलाता है । उसकी अर्थ रूप ।
सर्वत: शुद्ध, माया, निदान और मिथ्यादर्शन- इन तीनों उत्पत्ति अर्हत् से तथा सूत्र रूप उत्पत्ति गणधरों से होती
शल्यों को छिन्न करने वाला है । यह सिद्धि, मुक्ति, निर्याण है । अत: प्रवचन, सूत्र और अर्थ-ये तीनों एकार्थक हैं। (मोक्ष) और निर्वाण (शांति) का मार्ग है। यह यथार्थ, सामान्यतः श्रुतज्ञान को और विशेषतः सूत्र तथा अर्थ को अविच्छिन्न और सर्व दुःखों के प्रहाण का मार्ग है। प्रवचन कहा गया है।
इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव, सिद्ध, बुद्ध, २. प्रवचन के पर्याय
मुक्त और परिनिर्वृत होते हैं तथा सब दुःखों का अन्त सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा। करते हैं।
(आवनि १३०) मैं इस निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि श्रतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन और प्रवचन--ये करता हूं, इसका आचरण और अनुपालन करता हैं। एकार्थक हैं।
४. प्रवचन के प्रभावक प्रवचन का आधारभूत होने के कारण तीर्थ को
अइसेसइडिढयायरिय वाई धम्मकहि खवग नेमित्ती । प्रवचन कहा गया है।।
(द्र. तीर्थ)
विज्जा रायागणसंमया य तित्थं पभावति ।। जमिह पगयं पसत्थं पहाणवयणं च पवयणं तं च ।
(नन्दीमवृ प २१०) (विभा १३६७)
प्रवचन अथवा तीर्थ के प्रभावक आठ घटकप्रशस्त और प्रधान वचन प्रवचन है । मज्जिज्जइ सोहिज्जइ जेणं तो पवयणं तओ मग्गो।
१. अतिशेषऋद्धि-अतिशय ऋद्धिसम्पन्न । अहवा सिवस्स मग्गो मग्गणमन्नेसणं पंथो॥
२. आचार्य--युगप्रधान आगमपुरुष । ..."पावयणमाइवयणं वा । सिवपावयवयणं वा."||
३. वादी-वाद-विद्या में निपुण । (विभा १३८१, १३८२)
४ धर्मकथी-धर्म-कथा में कुशल । ० मार्ग का अर्थ है-परिमार्जन, शोधन । प्रवचन
५. क्षपक-तपस्या करने वाला। परिमार्जन का हेतू है अतः उसे मार्ग कहा गया है।
६. नैमित्तिक-निमित्तविद् । अथवा मार्ग का अर्थ है- अन्वेषण। इससे शिवपथ ७. विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं का पारगामी। का अन्वेषण संभव है, अतः इसे मार्ग कहा गया ८. राजसम्मत--राजाओं द्वारा सम्मत व्यक्ति।
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