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प्रमाद
प्रमाद : साधना का बाधक तत्व
प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्यातशारीरमानसा
नेकदुःखहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्त्यपि सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधम्मं चिन्तामणी यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यन्निव तद्द्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवास्ते जीव स खलु प्रमादः । तस्य च प्रमादस्य ये हेतवो मयादयस्तेऽपि प्रमादास्तत्कारणत्वात् । ( नन्दीम प २०४ ) निरन्तर प्रज्वलित, अग्नि की ज्वालाओं
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प्रचुर कर्मरूपी इन्धन से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक दुःखरूपी से यह सारा संसार वास पिरा हुआ है उसमें रहने वाला व्यक्ति उस अग्नि को साक्षात् देख रहा है। उस प्रज्वलित गृह से निर्गमन का उपाय है वीतराग द्वारा प्रणीत धर्म का समाचरण । किन्तु कर्मोदय के विचित्र परिणाम विशेष से उसको न देखता हुआ, उस कराल अग्नि के भय की गणना न करता हुआ वह जीव परलोक के लिए की जाने वाली विशिष्ट क्रियाओं से विमुख ही रहता है । इसका मूल कारण है --प्रमाद । इस प्रमाद के मद्य आदि जो हेतु हैं, वे सभी प्रमाद हैं, क्योंकि वे प्रमाद के कारणभूत हैं ।
प्रमाद : भव-भ्रमण का हेतु
एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहि । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ (१०/२५)
प्रमाद-बहुत जीव शुभ-अशुभ कर्मों मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है, गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । अप्रमतत्ता का आलम्बन
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इमं च मे अस्थि इमं च नरिथ, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं ।
४६१
तं
एवमेवं लालप्यमाणं, हरा हरंति त्ति कहूं पमाए ॥
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द्वारा जन्मइसलिए हे
(उ १४/१५) "यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठाने वाला काल उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया ?" जाए
अप्रमत्त पहले या पीछे ?
स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ खिष्पं न सक्केइ विवेगमे तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी अप्पा रक्खी
चरमण्यमत्तो ॥
(उ४/९, १०) जो पूर्व जीवन में अप्रमत नहीं होता वह पिछले जीवन में भी अप्रमाद को नहीं पा सकता। "पिछले जीवन में अप्रमत्त हो जाएंगे " ऐसा निश्चय वचन - शाश्वतवादियों के लिए ही उचित हो सकता है । पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के द्वारा शरीरभेद के क्षण उपस्थित होने पर विषाद को प्राप्त होता है ।
प्रवचन
कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता इसलिए मोक्ष की एषणा करने वाले महर्षि ! तुम उत्थित बनो - जीवन के अन्तिम भाग में अप्रमत्त बनेंगे इस आलस्य को त्यागो कामभोगों को छोड़, लोक को भलीभांति जान समभाव में रमण तथा आत्मरक्षक और अप्रमत्त होकर विचरण करो ।
सुत्ते यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिए आपन्ने ।
घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं
भाडपक्खी व चरप्यमत्तो ॥ ( उ ४ ६) आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे । प्रमाद में विश्वास न करे । काल बड़ा घोर ( क्रूर) होता है। शरीर दुर्बल है। इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करे ।
अप्रमत्त नियमतः अहिंसक कषायप्रमत्त योगप्रमत
(x. arfiger)
( इ. गुणस्थान) (द्र प्रतिलेखना)
प्रतिलेखना प्रमाद | प्रवचन - जिनशासन द्वादशांग ।
१. प्रवचन के अर्थ
२. प्रवचन के पर्याय
३. निग्रंथ प्रवचन का स्वरूप और परिणाम ४. प्रवचन के प्रभावक
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प्रवचन: द्वादशांग
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( द्र. अंगप्र विष्ट )
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