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प्रत्याख्यान
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प्रत्याख्यान-प्रतिपादन विधि
तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणस्साणं। केवलिसत्क (केवली के विद्यमान) चार कर्मों-वेदनीय, अउलोवसमेण पुणो पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥ आयुष्य, नाम और गोत्र को क्षीण कर देता है। उसके तत्तो चरित्तधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुव्वं तु । पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वत होता तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खो सयासुक्खो॥ है तथा सब दुःखों का अन्त करता है।
. (आवनि १५९४-१५९६) सदभावेन--सर्वथा पूनःकरणासंभवात्परमार्थेन प्रत्याप्रत्याख्यान की विधिवत् अनुपालना करने से आस्रव- ख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीति। द्वारों का निरोध होता है। आस्रवद्वारों के निरोध से
(उशावृ प ५८९) विषयाभिलाषा की निवृत्ति (तृष्णाक्षय), अतुल उपशम सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ है-पारमार्थिक प्रत्याकी वृद्धि, प्रत्याख्यान की विशोधि, चारित्रधर्म की आरा
ख्यान । यह चौदहवें गुणस्थान में होता है--इस भूमिका धना, कर्म-विवेक, अपूर्वकरण (श्रेणीआरोहण), कैवल्य में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है, ईसमें फिर किसी प्रत्याकी प्राप्ति और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इस अवस्था को पूर्ण संवरआहार-प्रत्याख्यान के परिणाम
रूप शैलेशी अवस्था कहा जाता है। आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदइ ।
१४. प्रत्याख्यान-प्रतिपादन विधि जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेणं
कथनविधिरुच्यते, तत्रायं वद्धवाद:-काए विधीए न संकिलिस्सइ।
(उ २९।३६)
कहितव्वं ? पढमं मूलगुणा कड्ढेति पाणातिपातवेरआहार प्रत्याख्यान से जीव जीवित रहने की अभि
मणाति, ततो साधुधम्मे कथिते पच्छा असढस्स सावगलाषा के प्रयोग का विच्छेद कर देता है। जीवित रहने
धम्मो, इहरा कहिज्जति सत्तिट्ठोवि सावयधम्म पढमं सोतुं की अभिलाषा का विच्छेद कर देने वाला व्यक्ति आहार
तत्थेव वित्ति करेइ । उत्तरगुणेसुवि छम्मासिय आदि काउं के बिना (तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता।
जं जस्स जोग्ग पच्चक्खाणं तं तस्स असढेण कहेतव्वं । सहयोग-प्रत्याख्यान के परिणाम
(आवहाव २ पृ २४८) सहायपच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ । एगीभावभूए
प्रत्याख्यान विषय का प्रतिपादन करना हो तो सर्ववि य णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्प- प्रथम प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतरूप साधूकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले धर्म का प्रतिपादन कर फिर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करना समाहिए यावि भवइ।
(उ २९।४०) चाहिये । अन्यथा श्रावकधर्म को सर्वप्रथम सुनकर श्रोता सहाय-प्रत्याख्यान से जीव अकेलेपन को प्राप्त की मानसिकता में परिवर्तन आ सकता है, वह शक्तिहोता है। अकेलेपन को प्राप्त हुआ जीव एकत्व के सम्पन्न होने पर भी श्रावकधर्म को स्वीकार करना आलम्बन का अभ्यास करता हुआ कोलाहलपूर्ण शब्दों से चाहेगा, साधूधर्म को नहीं। उत्तरगुणों के सन्दर्भ में भी मुक्त, वाचिक कलह से मुक्त, झगड़े से मुक्त, कषाय से सर्वप्रथम पाण्मासिक तप की चर्चा कर फिर जो जिसके मुक्त, तू-तू से मुक्त, संयमबहुल, संवरबहुल और समाधिस्थ योग्य हो, उस तप का वर्णन करना चाहिये। हो जाता है।
आणागिझो अत्थो आणाए चेव सो कहेयव्वो । सद्भाव-प्रत्याख्यान के परिणाम
दिळंतिउ दिळंता कहणविहि विराहणा इअरा ।। सब्भावपच्चक्खाणेणं अनियदि जणयइ । अणियट्रि
(आवनि १६१९) पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तं अनागत आदि प्रत्याख्यानों का प्रतिपादन आगम में जहा ...- वेयणिज्ज आउयं नाम गोयं । तओ पच्छा प्रतिपादित अर्थ के अनुसार करना चाहिये । जहां सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं दृष्टांत अपेक्षित हो, वहां दृष्टांत का प्रयोग करना करेइ।
(उ २९॥४२) चाहिये। ऐसा करने से प्रतिपादनविधि की आराधना सद्भाव-प्रत्याख्यान से जीव अनिवृत्ति-शुक्लध्यान होती है, अन्यथा विराधना होती है। को प्राप्त करता है। अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अनगार आज्ञाग्राह्योऽर्थः--सौधर्मादिः आज्ञयवासौ कथयि
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