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प्रत्याख्यान
पारिष्ठापनिका आकार
आयंबिलमणायंबिल चउथा बालबुड्ढसहुअसहू । अडियहिंडियr पाहुणयनिमंतणावलिया || ( आवनि १६१० ) पारिट्ठावणिया आगारो- :- सो कस्स दायव्वो ण वा केरिस वा पारिट्ठावणियं दायव्वं ण दायव्वंति ? ते सव्वेवि दुविहा आयंबिलगो य अणायंबिलगो य, आयंबिलिओ आयंबिलतो चेव, अणायंबिलितो निव्वीयं एगासणगं एगट्टाणगं चउत्थं छट्ठ अट्टमं । दसमादियाणं ण वट्टति दातुं तस्स पेज्जे उण्हं वा देति, अवि य सो सदे - वयतो होति । एक्को आयंबिलिओ एगो चउत्थभत्तितो कस्स दायव्वं ? चउत्थभत्तियस्स दायव्वं, दोवि ते आयंबिलगा अभत्ता वा एगो वुड्ढो एगो बालो, बालस्स दायव्वं, दोवि बाला दोवि बुड्ढा एगो सहू एगो असहू, असहुस्स य दायव्वं, दोवि असहा एगो हिंडतो एगो अहिंडगो, अहिंडयस्स दायव्वं, दोवि हिडया दोवि वा अहिंडया, एगो पाहुणगो एगो वत्थव्वतो, पाहुणगस्स
दायव्वं ।
( आवचू २ पृ ३२० ) परिष्ठापनीय आहार ग्रहण के योग्य साधु दो श्रेणियों में विभक्त हैं - १. आचाम्ल करने वाले २. आचाम्ल नहीं करने वाले ( एकाशन, एकस्थान, उपवास, बेला, तेला करने वाले और निर्विकृतिक ) ।
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दशमभक्त (चार दिन के उपवास ) वालों को परिष्ठापनीय आहार नहीं दिया जाता, केवल उष्ण जल दिया जा सकता है । उनके अधिष्ठित देव होता है ।
एक के आचाम्ल है और एक के उपवास है तो प्राथमिकता किसको दी जाये ? इसके समाधान में कहा गया है कि उपवास करने वाले को प्राथमिकता दी जाये । उपवास करने वालों में भी बाल और वृद्ध हों तो पहले बाल को दिया जाये। उनमें भी असहिष्णु, भ्रमणशील और प्राघूर्णक को दिया जाये, सहिष्णु, अभ्रमणशील और स्थिरवासी को नहीं । प्राघूर्णक न हो तो असहिष्णु, भ्रमणशील और वास्तव्य बाल को दिया जाये इन चार पदों के आधार पर आचाम्ल और उपवास के सोलह विकल्प बनते हैं। इसी प्रकार आचाम्ल के षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि के साथ कुल छियानवे विकल्प बनते हैं । आचाम्लक और निर्विकृतिक में से आचाम्लक
को प्राथमिकता दी जाये ।
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दिवसचरिम
एक मुनि के चतुर्थभक्त (उपवास) और एक के भक्त (बेला) है तो षष्ठभक्त वाले को परिष्ठापनीय आहार दिया जाता है। इसी प्रकार एकाशन और एकस्थान में एकस्थान को एकाशन और निर्विकृति में एकाशन को प्रथमता दी जाती है ।
अट्टमभत्तियस्त पारिट्ठावणिया ण दिज्जति ..... तं पुण विट्ठे । ति आयरिया अट्ठमा पभणति केति दसमादि, जेसि अट्टमं अवियट्ठ तेसि अट्टमेण य दायव्वं । ( आवचू २ पृ ३२१) अष्टमभक्त (तेला) विकृष्ट तप है, अतः अष्टमभक्तिक को परिष्ठापनीय आहार नहीं दिया जाता। जो आचार्य अष्टमभक्त को अविकृष्ट तप मानते हैं, उनके अनुसार अष्टमभक्ति को परिष्ठापनीय आहार दिया जा सकता
है।
देय परिष्ठापनीय आहार
विहिहियं विहिभुत्तं उव्वरियं जं भवे असणमाई । तं गुरुणाऽणुन्नायं कप्पइ आयंबिलाईणं ॥ ( आवनि १६११ )
जो आहार निर्दोष विधि ( अलुब्धभाव) से गृहीत और विधभुक्त (मण्डली में कट- प्रतर छेद और सिंह की तरह विधि से खाया गया) है, उसमें से यदि कुछ बच जाता है तो वही बचा हुआ परिष्ठापनीय आहार आयंबिल, एकाशन, उपवास आदि करने वालों को गुरु की अनुज्ञा से दिया जा सकता है ।
( अविधि से गृहीत और काक, शृगाल आदि की तरह अविधि से भुक्त आहार में से बचा हुआ आहार तपस्वी के लिए कल्पनीय नहीं है । ऐसा दोष दूषित आहार देने वाले और खाने वाले दोनों विवेक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं । यदि वे इस स्खलना को पुनः न करने का संकल्प करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त स्वरूप केवल पांच कल्याणक दिये जाते हैं ।
लुब्धभाव से गृहीत आहार को मंडलीरानिक साधु समरस करके खिलाता है, खाने के पश्चात् जो आहार बच जाता है, वह भी विधिभुक्त होने के कारण देय है ।) fereafte
दिवसचरिमं पच्चखाइ चउव्विपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं
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