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पर्याप्ति
उदेज्जंति जहा गिरिनिज्झरणपाणीयं, एयस्स छुहा उदेज्जति । अचित्ते णोकम्मदव्वपरीसहा जहा अग्गिदीवणियष्णेहि छुहा भवति । मीसे गुलल्लएणं छुहा भवति । पिवासावरीसहो लोणपाणीएण वा तण्हा उदेज्जति, तेलेहि य अचित्तंहि, णिङ्खलवणादीहि मिस्सेहि दव्वेहि खज्जतेहि यता उदेज्जति ।
भावपरीसहा, ते वेदणिज्जाणं कम्माणं, उदिण्णाणं वेदणिज्जाणं भवंति । ( उचू पृ ४७ )
द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं
१. कर्मद्रव्यपरीषह-बद्ध परीषहवेदनीय जब तक उदय में नहीं आता ।
२. नोकद्रव्यपरीषह - परीषह के उदय में निमित्तभूत द्रव्य । ये तीन प्रकार के हैं—
१. सचित्त - गिरिनिर्भर के जल आदि से क्षुधा का
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उदय ।
२. अचित्त - अग्निउद्दीपकचूर्ण आदि से क्षुधा का
उदय ।
३. मिश्र -- गुड़ाईक से क्षुधा का उदय । इसी प्रकार लवणजल, तेल, स्निग्धलवण आदि के सेवन से पिपासा परीषह का उदय होता है ।
परीषवेदनीय कर्म का वेदन करना भाव परीषह
है ।
परोक्षज्ञान- - इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान ।
पर्याप्ति
( द्र. ज्ञान ) -जन्म के प्रारंभ में होने वाली जीवनोपयोगी पौद्गलिक शक्ति ।
१. पर्याप्ति की परिभाषा
२. पर्याप्ति के प्रकार
३. पर्याप्ति-निर्माण का हेतु
४. पर्याप्त और अपर्याप्त
५. अपर्याप्त के प्रकार
* पर्याप्त अपर्याप्त : जीव के भेद
६. पर्याप्ति-निर्माण का कालमान
७. किस जीव में कितनी पर्याप्तियां ?
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पर्याप्ति के प्रकार
पुद्गलद्रव्यों के उपचय से उत्पन्न शक्ति या सामर्थ्य का नाम है पर्याप्ति ।
पर्याप्तिः- आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात् । उत्पत्तिदेशमागतेन येन गृहीता आहारादिपुद्गलास्तेषां तथा अन्येषां च प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानामुपष्टस्भेन यः शक्तिविशेषो जीवस्याहारादिपुद्गलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहेतुः " : ......सा पर्याप्तिः ।
१. पर्याप्ति की परिभाषा
पज्जती नाम सत्ती सामत्थं । सा य पुग्गलदव्वोवचया उप्पज्जति । ( नन्दी पृ २२ )
( नन्दीमवृप १०४, १०५ ) जीव उत्पत्तिस्थान को प्राप्त कर आहार आदि के योग्य पुद्गल ग्रहण करता है, फिर प्रतिसमय अन्य पुद्गल ग्रहण करता रहता है । प्रथम समय में गृहीत पुद्गलों के सम्पर्क से अन्य गृहीत पुद्गल भी उस रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । उन पुद्गलों के उपष्टम्भ / अवलम्बन से जो विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है, वह जीवनपर्यन्त जीव के आहार आदि के पुद्गलों का ग्रहण तथा उन्हें खल, रस आदि के रूप में परिणत करने का हेतु बनती है । यह पौद्गलिक शक्तिविशेष ही पर्याप्ति है । २. पर्याप्ति के प्रकार
छ पज्जतीतो- आहार- सरीर इंदिय - आणापाणु - भासा - मणपज्जत्ती ।
( नन्दी पृ २२ )
पर्याप्ति के छह प्रकार - १. आहार पर्याप्ति
२. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति आहार पर्याप्त
४. प्राणापान पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति ६ मनः पर्याप्ति ।
आहारपज्जत्ती नाम खल रसपरिणामणसत्ती ।
( नन्दीचू पृ २२ )
या बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः । ( नन्दीमवृ प १०५ ) जीव जिससे आहारप्रायोग्य पुद्गलों के ग्रहण, खलरसरूप में परिणमन और उत्सर्जन की क्षमता प्राप्त
( द्र. जीव ) करता है, वह आहार पर्याप्ति है । शरीर पर्याप्ति
सत्तधातुतया परिणामणसत्ती शरीरपज्जत्ती । ( नन्दी पृ २२ ) यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । ( नदीम १ १०५ )
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