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अपर्याप्त के प्रकार
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पर्याप्ति
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जो रस में परिणत आहार को सात धातुओं-रस, ३. पर्याप्ति-निर्माण का हेतु रक्त, मांस, वसा, अस्थि, मज्जा और शुक्र के रूप में एताओ पज्जत्तीओ पज्जत्तयणामकम्मोदएणं परिणत करती है, वह शक्ति शरीर पर्याप्ति है। णिव्वत्तिज्जति।
__ (नन्दीचू पृ २२) इन्द्रिय पर्याप्ति
पर्याप्तनामकर्म के उदय से पर्याप्तियों का निर्वर्तन/ पंचण्हमिदियाणं जोग्गा पोग्गला चियित्त अणाभोग- निमाण होता है। निव्वत्तितविरियकरणेण तब्भावणयणसत्ती इंदियपज्जत्ती। ४. पर्याप्त और अपर्याप्त
(नन्दीचू पृ २२) ता जेसिं अत्थि ते पज्जत्तया । अपज्जत्तयणामकम्मोजिससे इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का चय होता है . दएणं अणिव्वत्तातो जेसिं ते अपज्जत्तया । और स्वतः स्फूर्त वीर्यकरण से इन्द्रियों की कार्यशक्ति पैदा होती है, वह शक्ति इन्द्रिय पर्याप्ति है।
(नन्दीचू पृ २२)
ये स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला: ते अपर्याप्ताः । यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ।
(नन्दीमवृ प १०५) (नन्दीमवृ प १०५)
जो जीव अपने जन्म के योग्य सारी पर्याप्तियों को जो धातुरूप में परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप पूर्ण कर लेता है, वह पर्याप्त कहलाता है। में परिणत करती है, वह इन्द्रिय पर्याप्ति है।
अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जो जीव अपने योग्य
पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाता, वह अपर्याप्त कहलाता प्राणापान पर्याप्ति
उस्सासपोग्गलजोग्गाणापाणूण गहण-णिसिरणसत्ती आणापाणुपज्जत्ती।
(नन्दीच १२२) ५. अपर्याप्त के प्रकार श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों की ग्रहण और ते च द्विधा लब्ध्या करणश्च । येऽपर्याप्तका एव विसर्जन की शक्ति का नाम है प्राणापान (आनापान/ सन्तो म्रियन्ते न पूनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति ।
समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः। तेऽपि नियमादाहारभाषा पर्याप्ति
शरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाक । वइजोग्गे पोग्गले घेत्तण भासत्ताए परिणामेत्ता।
यस्मादागामिभवायुर्बद्धवा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः । वइजोगत्ताए निसिरणसत्ती भासापज्जत्ती।
तच्चाहारशरीरेन्द्रिय-पर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यते । ये
(नन्दीच पृ २२) पुनः करणानि –शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति 'भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर, उन्हें भाषा
- अथ चावश्यं निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः।
(नन्दीमत् प १०५) रूप में परिणत कर, वचनयोग से उनका निःसरण
अपर्याप्त दो प्रकार के होते हैंकरने की पौद्गलिक शक्ति का नाम है भाषा पर्याप्ति ।
१. लब्धि अपर्याप्त-जो अपर्याप्त अवस्था में ही मर मनः पर्याप्ति
जाते हैं, अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर ___ मणजोग्गे पोग्गले घेत्तूणं मणत्ताए परिणामेत्ता
पाते, वे लब्धि अपर्याप्त हैं। वे भी आहार, शरीर मणजोगत्ताए निसिरणसत्ती मणपज्जत्ती।
और इन्द्रिय-इन तीनों पर्याप्तियों को पूर्ण करने से (नन्दीचू पृ २२)
पहले नहीं मरते। क्योंकि आगामी भव के आयुष्य यया मनोयोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः।।
का बंध होने पर ही प्राणी मरते हैं और आयुष्य का (नन्दीमत् प १०५)
बंध इन पर्याप्तियों की पूर्णता होने पर ही होता जिस शक्ति से मनन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, मन रूप में परिणमन और विसर्जन होता है, वह २. करण अपर्याप्त-जो प्राणी जिस जन्म में शरीर मनःपर्याप्ति है।
आदि पर्याप्तियों का निश्चित रूप में निर्माण करने
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