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परीषह
५. वह अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है ।
निषद्या परिषह
सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥ तत्थ से चिट्टमाणस्स, उवसग्गाभिधारए । संकाभीओ न गच्छेज्जा, उट्ठित्ता अन्नमासणं ॥
( उ २।२०, २१) राग-द्वेष रहित मुनि चपलताओं का वर्जन करता हुआ श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के मूल में बैठे। दूसरों को त्रास न दे ।
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वहां बैठे हुए उसे उपसर्ग प्राप्त हों तो वह यह चितन करे – “ये मेरा क्या अनिष्ट करेंगे ?" किन्तु अपकार की शंका से डरकर वहां से उठ दूसरे स्थान पर न जाए ।
निषेधः पापकर्मणां गमनादिक्रियायाश्च स प्रयोजनमस्या नषेधिकी श्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषद्येति यावत् सैव परीषहो नैषेधिकीपरीषहः । ( उशाबू प ८३) जिसमें पापक्रिया अथवा गमन आदि क्रिया का निषेध होता है, वह नैषेधिकी है। स्वाध्यायभूमि आदि में निषद्या से संबंधित कष्ट सहन करना नैषेधिकी परीषह है । (नषेधिकी की अपेक्षा निषद्या शब्द अधिक उपयुक्त हैद्र. निषद्या)
उच्चावयाहि सेज्जाहि, तवस्सी भिक्खु थामवं । नाइवेलं विहन्नेज्जा, पावदिट्ठी विहन्नई ॥ परिक्कुवस्सयं लद्ध, कल्लाणं अदु पावगं । किमेरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए ॥ ( उ २।२२, २३) तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न करे ( हर्ष या शोक न लाए) । जो पापदृष्टि होता है, वह विहत (हर्ष या शोक से आक्रांत ) हो जाता है ।
प्रतिरिक्त (एकान्त ) उपाश्रय - भले फिर वह सुन्दर हो या असुन्दर को पाकर "एक रात में क्या होना जाना है" - ऐसा सोचकर रहे, जो भी सुख-दुःख हो, उसे सहन करे ।
आक्रोश परीषह
अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसि पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥
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अलाभ परीषह
सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गाम कण्टगा । तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे ॥
( उ २।२४, २५) कोई मनुष्य भिक्षु को गाली दे तो वह उसके प्रति क्रोध न करे । क्रोध करने वाला भिक्षु बाल ( अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे ।
मुनि परुष, दारुण और ग्राम - कंटक ( कर्णकंटक) भाषा को सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए ।
वध परीषह
हओ न संजले भिक्खू, मणं पिन पओसए । तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचितए ॥ समणं संजयं दंतं, हणेज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए ॥ ( उ २।२६, २७) पीटे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे। मन में भी द्वेष न लाए । तितिक्षा को परम जानकर मुनि-धर्म का चिन्तन करे ।
संयत और दान्त श्रमण को "आत्मा का नाश नहीं होता" प्रतिशोध की भावना न लाए ।
कोई कहीं पीटे तो वह ऐसा चिन्तन करे, पर
याचना परीषह
दुक्करं खलु भो ! निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं ते जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ॥ गोयग्गविस पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवा त्ति, इइ भिक्खू न चितए ॥ ( उ २।२८, २९) कि उसे जीवनभर सब कुछ याचना से मिलता है, ओह ! अनगार भिक्षु की यह चर्या कितनी कठिन उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता ।
है
गोचरा में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है। अतः 'गृहवास ही श्रेय हैमुनि ऐसा चिन्तन न करे ।
अलाम परीषह
परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे अलद्धे वा, नाणुतप्पेज्ज संजए ||
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