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चर्या परीषह
मुनि ऐसा न सोचे । ( दीनता और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए ।)
जिनकल्प - दशा में अथवा वस्त्र न मिलने पर मुनि अचेलक भी होता है और स्थविरकल्प - दशा में वह सचेलक भी होता है । अवस्था भेद के अनुसार इन दोनों को यति-धर्म के लिए हितकर जानकर ज्ञानी मुनि वस्त्र न मिलने पर दीन न बने ।
जिनकल्पप्रतिपत्तौ स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवस्त्रादी वा सर्वथा चेलाभावेन सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन जीर्णादिवस्त्रतया वा अचेलक इति अवस्त्रोऽपि भवति । ( उशावृ प ९२,९३) अचेल - परीषह जिनकल्पी मुनियों के लिए तथा ऐसे स्थविरकल्पी मुनियों के लिए ग्राह्य है जिन्हें वस्त्र मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जिनके पास वस्त्रों का अभाव है, जिनके वस्त्र जीर्ण हो गये हैं अथवा जो वर्षा आदि के बिना वस्त्र धारण नहीं कर सकते । अचेलता के परिणाम ।
( द्र. शासनभेद )
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अरति परीषह
गामाशुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं । अरई अणुप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं || अरई पिट्टओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसंते मुणी चरे ॥ ( उ २११४, १५) एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को वह सहन करे । हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने वाला उपशान्त मुनि अरति को दूर कर विहरण करे ।
हुए
रमणं रतिः - संयमविषया धृतिः, तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः अरतिपरीषहः । ( उशावृ प ८२ ) संयम में धृति रखना रति है और अधृति रखना अरति है । यही परीषह है ।
स्त्री परीषह
संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगंमि इत्थिओ | जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामण्णं ॥ एवमादाय मेहावी, पंकभूया उ इथिओ | नो ताहिं विणिहन्नेज्जा, चरेज्जत्तगवेसए ||
( उ २।१६, १७)
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परीषह
'लोक में जो स्त्रियां हैं, वे मनुष्यों के लिए संग हैंलेप हैं' - जो इस बात को जान लेता है, उसके लिए श्रामण्य सुकर है ।
'स्त्रियां ब्रह्मचारी के लिए यह जानकर मेधावी मुनि उनसे घात न होने दे, किन्तु आत्मा की विचरण करे ।
चर्या परीषह
दलदल के समान हैंअपने संयम - जीवन की गवेषणा करता हुआ
एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे । गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए । असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहि, अणिएओ परिव्व ॥
( उ २०१८, १९) संयम के लिए जीवन निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला ( राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे |
मुनि एक स्थान पर आश्रम बनाकर न बैठे, किंतु विचरण करता रहे। गांव आदि के साथ ममत्व न करे, उनसे प्रतिबद्ध न हो । गृहस्थों से निर्लिप्त रहे । अनिकेत ( गृहमुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे ।
न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्याश्रया मूच्छितत्वेन अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियत विहारा दिनेत्यसमानः - असदृशो, यद्वा समान:- साहङ्कारो न तथेत्यसमानः । अथवा.... यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयं सन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योदन्तमावहति अयं तु न तथेत्येवंविधः सन् चरेत्, अप्रतिबद्धविहारतया विहरेत् । ( उशावृप १०७ ) भिक्षु असमान ( असाधारण ) होता है, इसके पांच अर्थ प्राप्त हैं
१. भिक्षु किसी घर या आश्रय में रहता है, पर गृह और गृहिणी के प्रति मूच्छित नहीं होता ।
२. वह अनियतविहारी होता है- अन्यतीर्थिकों की भांति नियत स्थानों में नहीं रहता ।
३. वह असमान - अहंकाररहित होता है ।
४. भिक्षु असन्निहित होने के कारण आश्रय की वार्ता से मुक्त होता है, उसकी प्रशंसा या सारसंभाल नहीं करता, गृहस्वामी से उसकी टूट-फूट संबंधी शिकायत नहीं करता ।
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