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सत्कार-पुरस्कार परीषह
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परीषह
अज्जेवाहं न लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। तृणस्पर्श परीषह जो एवं पडिसंविखे, अलाभो तं न तज्जए ।
अचेलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिणो। (उ २।३०,३१)
तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय-विराहणा ॥ गहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा । उसकी एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने या न मिलने एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया । पर संयमी मुनि अनुताप न करे ।
(उ २।३४,३५) "आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, परन्तु संभव है कल अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास मिल जाये"--जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ पर सोने से शरीर में चभन होती है। गर्मी पड़ने से नहीं सताता।
अतुल वेदना होती है-यह जानकर भी तृण से पीड़ित रोग परीषह
मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते। नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए । जल्ल परीषह अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थहियासए ।
किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण वा रएण वा । तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खत्तगवेसर।
घिसू वा परितावेण, सायं नो परिदेवए ।। एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ।।
वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मऽणुत्तरं। (उ २।३२,३३)
जाव सरीरभेउ त्ति, जल्लं काएण धारए । रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित
(उ २०३६,३७) होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा
मैल, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न को स्थिर बनाए और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन
" (गीला या पंकिल) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के करे। आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे।
मोह लिए विलाप न करे। रोग हो जाने पर समाधिपूर्वक रहे। उसका श्रामण्य यही
निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य-धर्म (श्रुत-चारित्रधर्म) है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न को पाकर देहविनाश पर्यन्त काया पर "जल्ल" (स्वेदकराए।
जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परीषह को जिनकल्पिकापेक्षया चैतत, स्थविरकल्पापेक्षया त सहन करे । 'जं न कूज्जा' इत्यादौ सावधमिति गम्यते । .."एतदप्यो- सत्कार-पुरस्कार परीषह त्सर्गिकम् ।
(उशावृ प १२०)
अभिवायणमब्भुटाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । चिकित्सा न करे, न कराए-यह उपदेश जिन
जे ताइं पडिसेवंति, न तेसि पीहए मुणी ।। कल्पिक मुनियों के लिए है। स्थविरकल्पी मुनि सावध
अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। चिकित्सा न करे, न कराए-यह औत्सर्गिक विधि है।
रसेसु नाणु गिज्झज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥ अपवादतस्तु सावद्याऽप्येषामियमनुमतैव ।
(उ २१३८,३९) काहं अछित्ति अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उज्जमिस्सं ।
अभिवादन और अभ्युत्थान करना तथा 'स्वामी'गणं व णीतीइ वि सारविस्सं, सालंबसेवी समवेति मोक्खं ।।
(उशाव प १२०)
इस संबोधन से संबोधित करना--जो गृहस्थ इस प्रकार आपवादिक विधि में मूनि चार कारणों से सावध
की प्रतिसेवना-सम्मान करते हैं, मुनि इन सम्मानजनक चिकित्सा का आलंबन ले सकता है--
व्यवहारों की स्पृहा न करे। १. मैं परम्परा को व्युच्छिन्न नहीं होने दूंगा।
अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात कुलों २. मैं ज्ञानार्जन करूंगा।
से भिक्षा लेने वाला, अलोलूप, प्रज्ञावान् मुनि रसों में गद्ध ३. मैं उपधान आदि तपोयोग के लिए उद्यम करूंगा। न हो, दूसरों को सम्मानित देख अनुताप न करे। ४. मैं नीतिपूर्वक गण की सार-संभाल करूंगा।
सत्कारो-वस्त्रादिभिः पूजनं, पुरस्कारः-अभ्यु
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