________________
योग्य अयोग्य श्रोता
४०१
प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता । अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो, उसकी भांति अनन्त मोह वाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता । परिवर्तना - परिचित श्रुत को लिए उसको बार-बार स्वाध्याय का एक भेद ।
( द्र. स्वाध्याय) श्रोताओं
का
परिषद् - जिज्ञासुओं अथवा समुदाय ।
१. परिषद् के प्रकार
२. वाचनायोग्य परिषद
स्थिर रखने के दोहराना ।
३. योग्य-अयोग्य श्रोता : मुद्गशैल आदि दृष्टांत ४. प्रत्याख्यान और श्रुतग्रहण योग्य परिषद् * अयोग्य को वाचना देने से हानि * तीर्थंकरों की परिषद्
(द्र. शिक्षा) ( द्र. समवसरण )
१. परिषद् के प्रकार
सा समासओ तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - जाणिया, अजाणिया, दुव्वियड्ढा ।
खीरमिव जहा हंसा जे घुट्टति इह गुरुगुणसमिद्धा । दोसे अविवज्जंती तं जाणसु जाणिअं परिसं ॥ जा होइ पगइमहुरा मियछावयसीहकुक्कुडयभूआ । रयणमिव असंठविआ अजाणिआ सा भवे परिसा || न कत्थइ निम्माओ न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं । वत्थिन्व वायपुण्णो फुट्टइ गामिल्लयविअड्ढो || ( नन्दीमवु प ६३, ६४)
Jain Education International
परिषद् के तीन प्रकार --- १. ज्ञा परिषद्
जो हंस की तरह क्षीर-नीर निर्णायक बुद्धि से सम्पन्न है, महान् गुणों से समृद्ध है, दोषों का परिहार करने वाली है, वह ज्ञा परिषद् है ।
२. अज्ञा परिषद्
जो प्रकृति से मधुर भद्र है, जिसमें मृगशावक, सिंहशावक और कुक्कुटशावक जैसा भोलापन है, जो असंस्कारित जात्यरत्नों की तरह अन्तर्गुण से समृद्ध है, वह अज्ञा परिषद् है ।
परिषद्
३. दुविदग्धा परिषद्
जो नैपुण्य के अहं के कारण किसी भी विषय को कहने में समर्थ नहीं होती, अपने पराभव के भय से गुरु से प्रश्न नहीं पूछती हवा से भरी हुई मशक की तरह जो अपने ज्ञान के अहं में फूली नहीं समाती, वह दुर्विदग्धा परिषद् है ।
२. वाचनायोग्य परिषद्
नाणपरूवणणं अरिहस्त देज्जति, णो अरिहस्स देज्जइ । ( नन्दीच पृ १२) तिसृणां पर्षद मध्ये आद्ये द्वे पर्षदावनुयोगयोग्ये, तृतीया त्वयोग्या | आये एव द्वे अधिकृत्यानुयोगः प्रारंभणीयो, न तु दुर्विदग्धां मा भूदाचार्यस्य निष्फलः परि० ( नन्दीमवृप ६४ )
श्रमः ।
से
योग्य शिष्य को वाचना नहीं । तीन परिषदों में परिषदें वाचना के योग्य हैं। वाचना के अयोग्य है । इसे का परिश्रम व्यर्थ चला जाता है । ३. योग्य-अयोग्य श्रोता
दी जाती है, अयोग्य को प्रथम दो - ज्ञा और अज्ञा तीसरी 'दुर्विदग्धा' परिषद् वाचना देने वाले आचार्य
सेल घण कुडग चालणि परिपूणग हंस महिस मेसे य । मसग जलूग विराली जाहग गो भेरि आभीरी ॥ ( नन्दी गाथा ४४ ) मुद्गल, घन, घट, चालनी, परिपूणक ( बया का घोंसला ), हंस, महिष, मेष, मशक, जलौका, बिल्ली, जाहक (झाबा), गौ, भेरी और आभीरी - इस प्रकार श्रोता अनेक प्रकार के होते हैं । मुद्गल और घन का दृष्टांत
उल्लेऊण न सक्को गज्जइ इय मुग्गसेलओऽरन्ने । तं संवट्टयमे हो गंतुं तस्सोर्पार पडइ || रविउत्ति ठिओ मेहो,
उल्लोऽम्हि न वत्ति गज्जइ य सेलो । सेलसमं गाहिस्सं निव्विज्जइ गाहगो एवं ॥ वुट्ठे वि दोणमेहे न कण्हभोमाओ लोठए उदयं । गहण - धरणासमत्थे इय देयमच्छित्तिकारिम्मि ॥
For Private & Personal Use Only
( विभा १४५५, १४५६, १४५८ ) एक जंगल में पर्वत के समीपवर्ती प्रदेश में मुद्गशैल-गोल और चिकना पाषाण खंड था । उसने
www.jainelibrary.org