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परिषद्
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महामेघ संवर्तक से कहा- मुझे कोई भी जल से आर्द्र नहीं कर सकता । उसकी चुनौती स्वीकार कर संवर्तक मेघ सात अहोरात्र तक निरन्तर बरसता रहा । 'अब मुद्गशैल खंड-खंड हो गया होगा' - यह सोच मेघ ने बरसना बन्द कर दिया, किन्तु देखने पर पता चला कि वह तो तिलतुषमात्र भी खंडित नहीं हुआ है और गीला भी नहीं हुआ है।
मुद्गशैल की श्रेणी का शिष्य अथवा श्रोता आचार्य से एक अक्षर का ज्ञान भी ग्रहण नहीं कर सकता । आचार्य के सैकड़ों वचनों से भी उसके चित्त का भेदन नहीं हो सकता, प्रत्युत आचार्य को खेदखिन्न ही होना पड़ता है ।
इसके विपरीत जो शिष्य या श्रोता कृष्णभूमि के समान होता है, वह गुरु के एक भी वचन को व्यर्थ नहीं जाने देता। सूत्र और अर्थ के ग्रहण-धारण में कुशल वह शिष्य श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रखता है ।
कृष्णभूमि इतनी ग्रहणशील होती है कि वह द्रोणमेघ की एक भी बूंद को व्यर्थ नहीं जाने देती सम्पूर्ण को सोख लेती है । जिसकी धारा से बड़ी कलशी भर जाती है, वह द्रोणमेघ कहलाता है ।
घटका
..... छड्डुकुड - भिन्न- खंडे सगले य परूवणा तेसिं ॥ ( विभा १४६२ )
चार प्रकार के घड़े होते हैं
१. सच्छिद्र कुट - जिस घड़े के तल में छिद्र होता है, उसमें जितना जल डाला जाता है, सारा का सारा निकल जाता है ।
२. भिन्न कुट - जो घड़ा पेट से फूटा हुआ, दरारयुक्त
होता है, उसमें डाला हुआ जल कुछ सुरक्षित रह जाता है और शेष बह जाता है । ३. खंडित कुट - जो घड़ा किनारों से फूटा हुआ होता है, उसमें काफी जल बचा रहता है, थोड़ा सा बह जाता है।
४. सकल कुट - जो घट परिपूर्ण होता है, उसमें डाला गया जल सारा सुरक्षित रहता है ।
इसी प्रकार चार प्रकार के श्रोता या शिष्य होते हैं । प्रथम कोटि का शिष्य इस कान से सुनता है, उस कान से निकाल देता है । दूसरी कोटि का शिष्य थोड़ा ग्रहण और अधिक को विस्मृत कर देता है। तीसरी
करता
महिष और मेष का दृष्टांत
कोटि का शिष्य थोड़ा भूलता है और अधिक याद रखता है । चौथी कोटि का शिष्य अक्षर मात्रा और बिन्दु की भी विस्मृति नहीं होने देता, सम्पूर्ण श्रुत को ग्रहण - धारण करने में समर्थ होता है ।
चालनी और तापसपात्र का दृष्टांत
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एगेण विसइ बीएण नीइ कन्नेण चालणी आह । ..." तावसखउरकठिणयं चालणपडिवक्खो
न सवइ दवं पि । "
( विभा १४६४, १४६५ ) चालनी जब तक जल में रहती है, भरी हुई रहती है, बाहर निकालते ही पूरी खाली हो कोटि का शिष्य गुरु के एक भी वचन डाला गया पानी टिकता नहीं, निकल
जाती है । उसमें
को
अवधारित नहीं जाता है । इस
कर पाता ।
तापसपात्र ( खउरकठिनक ) उसमें डाला गया जल किचित् भी इस कोटि का शिष्य आचार्य के प्रत्येक धारित कर लेता है ।
परिपूणक और हंस का दृष्टांत
..... परिपूणगम्मि उ गुणा गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ अंबत्तणेण जीहाए कूचिया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मुत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो ॥ ( विभा १४६५, १४६७) परिपूणक (सुघरी — बया के घोंसले ) में घृत आदि को छाना जाता है तो कचरा उसमें रह जाता है, सार पदार्थ नीचे भर जाता है । इस कोटि का शिष्य अपनी अपात्रता के कारण श्रुत में से दोषों को ग्रहण करता है, गुणों को छोड़ देता है ।
हंस की जीभ में अम्लता होती है। वह ज्यों ही अपनी चोंच दुग्धपात्र में डालता है, अम्लता के कारण दूध फट जाता है, पानी एक ओर हो जाता है और दूध छने के रूप में एक ओर हो जाता है । वह पानी को छोड़कर छैना खा लेता है । इस कोटि के शिष्य दोषों को छोड़, गुणों को ग्रहण कर लेते हैं ।
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अत्यन्त सघन होता है, स्रवित नहीं होता । वचन को अव
महिष और मेष का दृष्टांत
समवि न पियइ महिसो न य जूहं पियइ लोडियं उदगं । विग्गहविगहाहि तहा अथक्कपुच्छाहि य कुसीसो ॥
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