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परिग्रह
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परिग्रह के परिणाम
१४०)
स्वर्ण, रजत आदि दस
२. अचित्त-रत्न, वस्त्र आदि। अथवा परिग्रह के नौ प्रकार हैं
धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रुप्य, स्वर्ण, कुप्य, द्विपद और चतुष्पद । धणं-भंडं । तं चउविहं--गणिमं धरिमं मेज परिछज्ज । तत्थ गणिमं पूगफलादि। धरिमं मंजिष्ठादि । मेज्जं लक्खायततेल्लादि। पारिच्छेज्जं परीक्ष्य मूलतः परिच्छिज्जते तच्च मणिपद्महीरकादि ।
(आवचू २ पृ २९२) धन के चार प्रकार१. गणिम-गिनने योग्य । सुपारी, नारियल
__ आदि । २. धरिम तोलने योग्य । मजीठ आदि । ३. मेय-मापने योग्य । लक्षपाक तैल, घृत आदि। ४. परिच्छेद-परीक्षण करने योग्य । मणि, पद्म,
हीरक आदि । ३. बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह दुविहो य होइ गंथो बज्झो अभितरो य नायव्वो। अंतो य चउदसविहो दसहा पुण बाहिरो गंथो ।
(उनि २४०) ग्रन्थ (परिग्रह) के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य ग्रन्थ के दस प्रकार और आभ्यंतर ग्रन्थ के चौदह प्रकार हैं। बाह्यग्रन्थ के प्रकार
खेत्तं वत्थू धणधन्नसंचओ मित्तनाइसंजोगो। जाणसयणासणाणि अदासीदासं च कूवियं च ।।
(उनि २४२) बाह्यग्रन्थ के दस प्रकार--- १. क्षेत्र
६. यान २. वास्तु
७. शयन ३. धन
८, आसन ४. धान्य
९. दास-दासी ५. ज्ञातिजनों का संयोग १०. कुप्य । आभ्यंतर प्रन्थ के प्रकार कोहो माणो माया लोभे पिज्जे तहेव दोसे य।। मिच्छत्त वेअ अरइ रइ हास सोगे भय दुग्गुंछा ।।
(उनि २४१)
आभ्यन्तर ग्रन्थ के चौदह प्रकार१. क्रोध
८. वेद २. मान
९. अरति ३. माया
१०. रति ४. लोभ
११. हास्य ५. राग
१२. शोक
१३. भय ७. मिथ्यात्व
१४. जुगुप्सा । ४. द्रव्य-भाव परिग्रह
......."दव्वत्थो हिरण्णादी। भावत्थो दुविहो - पसत्थो अपसत्थो य । पसत्थो नाण-दसण-चरित्ताणि । अप्पसत्यो अण्णाण-अविरतिमिच्छत्ताणि।
स्वर्ण, रजत आदि द्रव्य अर्थ कहलाते हैं। भाव अर्थ के दो प्रकार हैं१. प्रशस्त-ज्ञान, दर्शन, चारित्र ।
२. अप्रस्त -अज्ञान, अविरति, मिथ्यात्व । ५. परिग्रह अनुप्रेक्षा
जह अप्पो लोभो जध जध अत्पो परिग्गहारंभो । तह तह सुहं पवड्ढति धम्मस्स य होति संसिद्धी॥ धन्ना परिग्गहं उज्झिऊण मूलमिह सव्वपावाणं । धम्मचरणं पवन्ना मणण एवं विचितेज्जा ॥
(आवचू २ पृ २९४) जैसे-जैसे लोभ, परिग्रह और आरम्भ अल्प होते हैं, वैसे-वैसे सूख बढ़ता है तथा धर्म की संसिद्धि होती है।
समस्त पापों के मूल परिग्रह को छोड़कर जो धर्म का आचरण करते हैं, वे धन्य हैं। ६. परिग्रह के परिणाम
मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो। आरम्भकलहहेऊ, दुक्खाण परिग्गहो मूलं ।।
(उसुव प ८३) परिग्रह मोह का आयतन, अहंकार और कामवासना को बढ़ाने वाला, चित्त में संताप पैदा करने वाला, हिंसा और कलह का हेतु तथा दुःखों का मूल है । वित्तेण त णं न लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा फ्रत्था । दीवप्पणठे व अणंतमोहे, नेआउयं दद्रुमदट्ठमेव ।।
(उ ४/५)
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