________________
निह्नव
आचार्य गंग और द्वेत्रियवाद
अम्हे सावय ! जयओ
वीरनिर्वाण के २२८ वर्ष व्यतीत होने पर उल्लुकाकत्थुप्पण्णा कहिं च पव्वइया ।। तीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हई। अमृगत्थ बेंति सड्ढा ते वोच्छिण्णा तया चेव ।। उल्लुका नदी के एक किनारे खेड़ा था, दूसरे किनारे तुब्भे तव्वेसधरा भणिए भयओ सकारणं च त्ति । उल्लुकातीर नाम का एक नगर था। वहां महागिरि के पडिवण्णा गुरुमूलं गंतुण तओ पडिक्कंता॥ शिष्य आचार्य धनगुप्त रहते थे। उनके शिष्य का नाम
(विभा २४२०-२४२३) गंग था। वे भी आचार्य थे। वे उल्लुका नदी के इस वीरनिर्वाण के २२० वर्ष व्यतीत होने पर मिथिला ओर खेड़े में वास करते थे। में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। मिथिला नगरी के आचार्य गंग शरद ऋतु में अपने आचार्य को वन्दना लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि के शिष्य कौण्डिन्य करने के लिए निकले । नदी में उतरे । वे गंजे थे। ऊपर थे। कौण्डिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व सूरज तप रहा था। नीचे पानी की ठंडक थी। उन्हें की नैपुणिक वस्तु की वाचना दे रहे थे। छिन्न-छेदनय एक समय (क्षण) में सिर को सूर्य की गरमी और परों की वक्तव्यता के अनुसार प्रथम समय के नारक को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न इस अनुभूति के आधार पर आचार्य गंग ने द्वैक्रियहो जायेंगे। उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो वाद का प्रतिपादन किया।। जाती है, अश्वमित्र को ऐसा बोध हुआ। गुरु ने कहा
तरतमजोगेणायं गुरुणाऽभिहिओ तुमं न लक्खेसि । यह बात ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से है, सब नयों की समयाइसुहमयाओ मणोऽतिचलसुहमयाओ य ।। अपेक्षा से नहीं है । गुरु के समझाने पर भी उसने गुरु के सुहमासुचरं चित्तं इंदियदेसेण जेण जं कालं । कथन को स्वीकार नहीं किया। तब गुरु ने उन सबको सबज्झइ तं तम्मत्तनाण हेउ त्ति नो तेण।। संघ से अलग कर दिया। वे विहरण करते हुए राजगृह
उवलभए किरियाओ जूगवं दो दरभिण्णदेसाओ । नगर में आए। वहां खण्डरक्षक श्रावक थे, जो वहां पाय-सिरोगयसीउण्हवेयणाणुभवरूवाओ॥ शुल्कपाल थे। उन्होंने उसको शिष्यों के साथ पकड़ बहु-वहुविहाइगहणे नणूवओगबहुया सुएऽभिहिआ । लिया और ये साधु-वेश में चोर हैं-ऐसा कहकर तमणेगग्गहणं चिय उवओगाणेगया नत्थि ।। पीटना शुरू किया।
ते च्चिय न संति समयं सामण्णाणेगगहणमविरुद्धं । अश्वमित्र ने कहा-श्रावको ! हम साधु हैं। तब एगमणेगं पि तयं तम्हा सामण्णभावेणं । श्रावकों ने कहा-आप कहां उत्पन्न हुए? कब प्रव्रजित जं च विसेसन्नाणं सामन्नन्नाणपुव्वयमवस्सं । हए? आपके सिद्धान्त के अनुसार आपका श्रमण रूप तो तो सामण्ण विसेसन्नाणाइं नेगसमयम्मि ।। विच्छिन्न हो गया। आप सब वेशधारी हैं—ऐसा कहने मणिनागेणारुद्धी भओववत्तिओ पडिबोहिओ वोत्तुं । पर तथा भय और युक्ति से समझाने पर वे सब श्रावकों इच्छामो गुरुमूलं गंतूण तओ पडिक्कतो।। के वचनों को स्वीकार कर गुरु के पास जाकर (विभा २४२८-२४३०,२४३८,२४४२,२४४५,२४५०) प्रायश्चित्तपूर्वक पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए।
सो हिंडतो रायगिहं गतो महातपोतीरप्पभे पासवणे ६. आचार्य गंग और द्वेक्रियवाद
तत्थ मणिनागो नाम नागो, तस्स चेतिते वेणति, सो तत्थ
परिसामज्झे कहेति - एवं खलु जीवेण एगसमएण दो अठ्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स।
किरियाओ वेदिज्जति । तासु तेण नागेण तीसे चेव दोकिरियाणं दिट्टी उल्लुगतीरे समुप्पण्णा ।।
परिसाए मज्झे भणितो- मा एतं पण्णवणं पण्णवेहि । नइखेडजणवउल्लुग महगिरि धणगृत्त अज्जगंगे य।।
एसा पण्णवणा दुठ्ठ सेहा ! , अहं एच्चिरं कालं वद्धमाणनइमुल्लगमुत्तरओ सरए सीयजलमज्जगंगस्स ।।
सामिस्स मूले सुणे मि जथा-एगा किरिया (एगसमएण सुराभितत्तसिरसो सीओसिणवेयणोभयओ॥
वेइज्जति)। ......"छड्डे हि एतं वादं......"भगवता एत्थ लग्गोऽयमसग्गाहो जुगवं उभयकिरिओवओगो त्ति ।
ठितेण समोसरितेण वागरितं । एवं सो पण्णवितो अब्भवजं दो वि समयमेव य सीओसिणवेयणाओ मे ॥ गतो उवद्रितो भणति मिच्छामि दुक्कडंति। (विभा २४२४-२४२७)
(आवचू १ पृ ४२४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.