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रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद
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निह्नव
द्विक्रिया का प्रतिवाद करते हए गुरु ने कहा-समय, रासिद्गगहियपक्खो तइयं नो जीवरा सिमादाय । आवलिका आदि काल की सूक्ष्मता से मन की सूक्ष्मता गिहकोकिलाइपुच्छच्छेओदाहरणओऽभिहिए । और शीघ्रगामिता के कारण तुम क्रिया की पृथक्ता का भणइ गुरू सुठ्ठ कयं कि पूण जेऊण कीस नाभिहियं । अनुभव नहीं कर सकते।
अयमवसिद्धंतो णे तइओ नो जीवरासि त्ति ।। चित्त अत्यंत सूक्ष्म और शीघ्रगामी है। वह जिस
एवं गए वि गंतुं परिसामज्झम्मि भणसु नायं णे । काल में जिस इन्द्रिय से संबद्ध होता है, उस समय उतना
सिद्धंतो किंतु मए बुद्धि परिभूय सो समिओ ।। मात्र ही ज्ञान कर सकता है। इसलिए पैर और सिर की
बहुसो स भण्णमाणो गुरुणा, शीत और उष्ण वेदना-दो भिन्न देशों में होने के कारण
पडिभणइ किमवसिद्धंतो । युगपत् दो क्रियाएं नहीं हो सकतीं।।
जइ नाम जीवदेसो नो जीवो हज्ज को दोसो ?।। शिष्य बोला-आगम में कहा है-बहु, बहुविध
एवं पि भण्णमाणो न पवज्जइ आदि अनेक का ग्रहण एक साथ होता है, तब उपयोग
सो जओ तओ गूरुणा । भी अनेक होंगे ?
चिंतियमयं पणट्ठो नासिहिई मा बहुं लोग ।। बह-बहुविध आदि वस्तु की अनेक पर्यायों का एक
तो णं रायसभाए निग्गिण्हामि बहुलोगपच्चक्खं । साथ ग्रहण सामान्य रूप से होता है लेकिन उपयोग अनेक
बहुजणनाओऽवसिओ होही अगेज्झपक्खो त्ति ।। नहीं होते। ___अनेक उपयोग युगपत् नहीं होते। अनेक अर्थों का
तो बलसिरिनिवपुरओ वायं नाओवणीयमग्गाणं । ग्रहण एक साथ हो सकता है। सामान्य की अपेक्षा से
कुणमाणाणमईया सीसा-ऽऽयरियाण छम्मासा ।। एक साथ अनेक अर्थों का ग्रहण होता है। विशेष की
एक्को विनावसिज्जइ जाहे तो भणइ नरवई नाहं । अपेक्षा एक समय में एक ही अर्थ का ग्रहण होता है।
सत्तो सोउं सीयंति रज्जकज्जाणि मे भगवं ॥ ___ आचार्य गंग संघ से अलग होकर राजगृह नगर में
गुरुणाऽभिहिओ भवओ सुणावणथमियमेत्तियंभणियं । आए। वहां महातपतीरप्रभ नामक एक झरना था। वहां
जइ सि न सत्तो सोउं तो निग्गिण्हामि णं कल्लं ।। मणिनाग नामक नागदेव का चैत्य था। आचार्य गंग ने बीयदिणे बेइ गुरू नरिंद ! जं मेइणीए सब्भूयं । उस चैत्य में परिषद् के सम्मुख द्वैक्रियवाद का प्रतिपादन तं कुत्तियावणे सव्वमथि सव्वप्पतीयमियं ।। किया। मणिनाग नागदेव ने परिषद् के मध्य प्रगट होकर तं कुत्तियावणसुरो नोजीवं देइ जइ, न सो नत्थि । कहा- तुम यह विपरीत प्ररूपणा मत करो। एक बार अह भणइ नत्थि, तो नत्थि, किं व हेउप्पबंधेणं ॥ भगवान् महावीर यहां समवसृत हुए थे। मैंने उनके मुंह तं मग्गिज्जउ मुल्लेण"...."परिसाहि ।। से यह सुना था कि एक समय में एक ही क्रिया का सिरिगुत्तेणं छलुगो छम्मास विकड्ढिऊण वाए जिओ। संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्यावाद को छोड़ो। आहरण कुत्तिआवण चोयालसएण पुच्छाणं ॥ मिथ्या प्ररूपणा से तुम्हारा नाश ही होगा। नाग देव ने
(विभा २४५१-२४५९; २४८१-२४८९) भय और युक्ति से उसे प्रतिबोध दिया। वह गुरु के पास
वीरनिर्वाण के ५४४ वर्ष व्यतीत होने पर अंतरंजिका आया, प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गया।
नगरी में त्रैराशिक मत का प्रवर्तन हआ। ७. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद
अंतरंजिका नगरी के बाहर भूतगह नामक चैत्य पंच सया चोयाला तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । था। वहां आचार्य श्रीगुप्त रहते थे। वहां के राजा का पूरिमंतरंजियाए तेरासियादिट्रि उत्पन्ना॥ नाम बलश्री था। रोहगुप्त आचार्य श्रीगुप्त का शिष्य पूरिमंतरंजि भूयगिह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । था। वह दूसरे स्थान पर रहता था। एक दिन वह परिवायपोटसाले घोसणपडिसेहणा वाए ॥ आचार्य को वंदना करने वहां आया। वहां पोटशाल विच्छू य सप्पे..... ॥ मोरी नउली....... ॥ नामक परिव्राजक भी रहता था। उसने वाद-विवाद के जेकण पोट्टसालं छलूओ भणइ गुरुमूलमागंतु । लिए नगर में उद्घोषणा की। रोहगुप्त ने उस चुनौती बायम्मि मए विजिओ सुणह जहा सो सहामझे ॥ को स्वीकार किया और सारी बात आचार्य को सुनाई ।
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