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निर्जरा
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नियुक्ति
तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं ।
नियुक्ति स्वतन्त्र शास्त्र नहीं है, किन्तु वह अपनेजाणमाणो वि धम्म, कामभोगेस मच्छिओ ।। अपने सूत्र के अधीन है। जैसे-आवश्यक सूत्र से सम्बद्ध
(उ १३।१,२८,२९) है आवश्यकनियुक्ति। सूत्र का सम्बन्ध अर्थ के साथ जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान होता है, क्योंकि वह उससे अविच्छिन्न है। निर्युक्त का (चक्रवर्ती होऊ-ऐसा संकल्प) किया। वह सौधर्म अर्थ है -सूत्र के साथ अर्थ का एकात्मभाव से सम्बद्ध देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देव बना। वहां होना । युक्ति का अर्थ है- स्पष्टरूप से सूत्र से संपृक्त से च्युत होकर चलनी की कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के अर्थ का क्रमबद्ध प्रतिपादन। मध्यवर्ती युक्त शब्द का रूप में उत्पन्न हुआ।
लोप होने से नियुक्ति शब्द निष्पन्न होता है। (चित्त मुनि के द्वारा धर्म का उपदेश दिए जाने पर सुत्ते निज्जुत्ताणं निज्जुत्तीए पुणो किमत्थाणं ? । ब्रह्मदत्त ने कहा) चित्रमुने ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि निज्जुत्ते वि न सव्वे कोइ अवक्खाणिए मुणइ ॥ वाले चक्रवर्ती (सनत्कुमार) को देख, भोगों में आसक्त
(विभा १०८७) होकर मैंने अशुभ निदान (भोगसंकल्प) कर डाला।
मन्दबुद्धि शिष्य व्याख्या के बिना सारे अर्थों को उसका मैंने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी नहीं जान पाते । अत: सूत्र में कहे गए अर्थों को भी का यह ऐसा फल है कि मैं धर्म को जानता हआ भी नियुक्ति के द्वारा व्याख्यात किया जाता है। कामभोगों में मूच्छित हो रहा हूं।
अंतम्मि उ वणसिउं पूव्वमणुगमस्स जं नए भणइ ।
तं जाणावेइ समं वच्चंति नयाणुओगो य॥ निर्जरा-तपस्या के द्वारा कर्मविच्छेद होने पर
उपक्रमः निक्षेप अनुगमः नया: इत्यनुयोगद्वाराआत्मा की जो उज्ज्वलता होती है, वह
णामन्ते पूर्व नयानुपन्यस्य यदिदानीमनुगमस्यानुयोगस्य पूर्व निर्जरा है। यह नौ तत्त्वों में सातवां
प्रथमं नयान् भणति, तज्ज्ञापयति भद्रबाहुस्वामी-नयातत्त्व है।
कारण में कार्य का उपचार करने ऽनुयोगौ प्रतिसूत्रं युगपदेव व्रजतः । से तपस्या को भी निर्जरा कहा जाता
(विभा १३५५ मवृ ५०१) है। उसके बारह भेद हैं। (द्र. तप)
अनुयोगद्वार चार हैं--उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और
नय । जहां अनुगम से पूर्व नय का न्यास होता है, वह निर्जरा अनुप्रेक्षा
इस बात का सूचक है कि प्रत्येक सूत्र में नय और अनूनिर्यक्ति-आगम की मूलस्पर्शी पद्यात्मक व्याख्या। गम अनुयोग एक साथ प्रवृत्त होते हैं - ऐसा भद्रबाहुनिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होई निज्जुत्ती ।।... स्वामी ने प्रज्ञापित किया है।
(आवनि ८८)
नियुक्तिअनुगम के प्रकार (द्र. अनुयोग) सुत्तनिज्जुत्तअत्थनिज्जूहणं निज्जुत्ती।
(आवचू १ पृ ९२)
एवं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगगओ य निक्खेवो । सूत्र में नियुक्त अर्थ की सुव्यवस्थित व्याख्या करने
सुत्तप्फासियजुत्ती नया य वच्चंति समयं तु ।। वाला व्याख्या ग्रन्थ है - नियुक्ति ।
. (विभा १००१) निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः परिपाट्या योजनं । सूत्रानुगम, सूत्रालापकगत निक्षेप, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः । नियुक्ति और नय-प्रत्येक सूत्र में इनका युगपत् प्रयोग
(दहावृ प २) होता है। निर्यक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः किन्तु तत्तत्सत्रपर- निज्जुत्ती वक्खाणं निक्खेवो नासमेत्तं तु । तन्त्राः तथा तद्व्युत्पत्त्याश्रयणात्, तथाहि-सूत्रोपात्ता
(विभा ९६५) अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रति नियुज्यन्ते- नियुक्ति में सूत्र की व्याख्या होती है और निक्षेप निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता में सूत्र का न्यासमात्र होता है-निर्यक्ति और निक्षेप में नियुक्तयः ।
(पिनिवृ प १) यही अन्तर है ।
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