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निक्षेप और नय
२. भव्यशरीर- अनागत में 'उत्तर' जानेगा । ३. तद्व्यतिरिक्त-तद्व्यतिरिक्त के
तीन भेद
२. अचित्त
१. सचित्त-पिता के उत्तर में पुत्र । दूध का उत्तरवर्ती दही । ३. मिश्र - मां के शरीर से उत्पन्न रोम आदि युक्त सन्तान ।
४. क्षेत्र उत्तर - मेरु आदि की अपेक्षा उत्तर में स्थित उत्तरकुरू । अथवा जो पहले शालिक्षेत्र था, बाद में इक्षुक्षेत्र हो गया ।
५ दिशा उत्तर-उत्तर दिशा ।
६. तापक्षेत्र उत्तर - ताप दिशा की अपेक्षा । जैसे सबके उत्तर में है मन्दराचल ।
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७. प्रज्ञापक उत्तर - प्रज्ञापक के बायें भाग में स्थित व्यक्ति ।
८. प्रति उत्तर-- एक दिशा में स्थित देवदत्त और यज्ञदत्त में देवदत्त से परे यज्ञदत्त उत्तर ।
९. काल उत्तर --- समय के उत्तर में आवलिका । १०. संचय उत्तर - धान्यराशि के ऊपर काष्ठ । ११. प्रधान उत्तर१. सचित्त-
(क) द्विपद में उत्तर - तीर्थंकर | (ख) चतुष्पदों में उत्तर - सिंह | (ग) अपद में उत्तर - सुदर्शनाजंबू वृक्ष ।
२. अचित्त - - चिन्तामणि । ३. मिश्र - - गृहस्थ तीर्थंकर |
१२. ज्ञान उत्तर – निरावरणता के कारण केवलज्ञान अथवा स्वपरप्रकाशकत्व के कारण श्रुतज्ञान |
अवस्था में अलंकार युक्त
१३. क्रम उत्तर -
(क) द्रव्यतः-परमाणु से उत्तर है द्विप्रदेशीस्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, अनन्त प्रदेशी स्कन्ध । (ख) क्षेत्रत: - एक प्रदेश में अवगाढ, तीन प्रदेशों में अवगाढ, असमानवर्ती असंख्य प्रदेशावगाढ पर्यन्त |
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(ग) कालतः - एक समय की स्थिति के उत्तर में हैदो समय की स्थिति असंख्य समय की स्थिति ।
(घ) भावतः - एक गुण कृष्ण से उत्तर में है दो गुण
कृष्ण... अनन्तगुण कृष्ण ।
निदान
१४. गणना उत्तर- एक के उत्तर में दा, दो के उत्तर में तीन शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त ।
१५. भाव उत्तर औदयिक आदि पांच भावों में क्षायिक भाव उत्तर है ।
६. निक्षेप और नय
नामाइतियं दव्वट्ठियस्स भावो य पज्जवनयस्स ।" ( विभा ७५ ) नाम आदि तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नय द्वारा और भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय द्वारा सम्मत है ।
निदान - पौद्गलिक सुखसमृद्धि के लिए किया जाने वाला संकल्प अथवा कोई भी आकांक्षात्मक संकल्प ।
निश्चितमादानं निदानं । अप्रतिक्रांतस्य अवस्यमुदयापेक्षः तीव्रः कर्मबन्ध इत्यर्थ । निदानमेव सल्लो निदानसल्लो । दिव्वं वा माणुसं वा विभवं पासितूण सोऊण वा निदाणस्स उववत्ती भवेज्जा । ( आवचू २ पृ७९ ) दोषसेवन का प्रतिक्रमण नहीं करने पर अवश्य उदय में आने वाला तीव्र कर्मबन्ध निदान है । आत्म विकास में SATE होने से यही निदान शल्य है ।
देवों और मनुष्यों के वैभव को देखकर या सुनकर उनकी प्राप्ति का संकल्प करना निदान है । निदानं – ममातस्तपः प्रभृत्यादेरिदं प्रार्थनात्मकम् ।
स्यादिति ( उशावृ प ५७९ )
'यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनूं' - इस प्रकार तप के फल के विनिमय में भोगप्राप्ति का संकल्प करना निदान है ।
सणिआणस्स चरितं न वट्टति । कस्मात् ? अधिकरणानुमोदनात् । तत्थोदाहरणं बंभदत्तो ।
( आवचू २ पृ७९)
जो निदानयुक्त होता है, उसके चारित्र नहीं होता, क्योंकि निदान के साथ हिंसा की अनुमोदना जुड़ी हुई है। यहां ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण मननीय है ।
जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि । उववन्नो चुलणीए बंभदत्तो, परमगुम्माओ ॥ हत्थिणपुरम्मि चित्ता, दट्ठूणं नरवई महिड्ढियं । कामभोगे गिद्धेणं, नियाणमसुहं कर्ड ॥
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