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निक्षेप
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उत्तर शब्द के निक्षेप
भाव निक्षेप
नाम और द्रव्य इन्द्र से सम्बद्ध नहीं है।। भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यात: । द्रव्य-भाव : कारण-कार्य सर्वरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥ भावस्स कारणं जह दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ ।
(आवमवृ प ९) उवओग-परिणइमओ न तहा नाम न वा ठवणा ।। विवक्षित क्रिया की अनुभूति कराने में उपयुक्त जो
(विभा ५४) है, वह है भाव निक्षेप । जैसे 'इन्द्र' को देखकर उसके
भाव का कारण है-द्रव्य । द्रव्य का कार्य (पर्याय) ऐश्वर्य या दीप्ति की अनुभूति होती है, तो वह भावइन्द्र
है- भाव । जैसे-अनुपयुक्त वक्ता द्रव्य है, उपयोगकाल
में वही द्रव्य भाव का कारण बनता है। वही उपयोग नाम, स्थापना और द्रव्य में अभेद
लक्षण वाला भाव अनुपयुक्त वक्ता रूप द्रव्य का पर्याय अभिहाणं दव्वत्तं तयत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाई। होता है। को भाववज्जिआणं नामाईणं पइविसेसो ?॥
जैसे-जो साधु इन्द्र बनने वाला है, वह द्रव्य-इन्द्र
(विभा ५२) भाव-इन्द्र रूप परिणमन का कारण होता है। वही भाव नाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीनों तीन दृष्टियों इन्द्र रूप में परिणत भाव इन्द्र साधु द्रव्य-इन्द्र का पर्याय से परस्पर तल्य हैं -अभिधान, द्रव्यत्व और भावार्थ- या कार्य होता है। शुन्यत्व । जैसे–मंगल एक (शब्द) वस्तु है। 'मंगल' द्रव्य जिस रूप में भाव का कारण बनता है, वैसे या अभिधान नाम, स्थापना और द्रव्य-इन तीनों में समान उस रूप में न नाम कारण बनता है और न स्थापना रूप से विद्यमान है।
ही। अतः नाम और स्थापना से द्रव्य भिन्न है। इसी प्रकार द्रव्यत्व और भावार्थशून्यता भी जैसे
स ४. चार निक्षेप अवश्य करणीय
- नाम में है, वैसे स्थापना और द्रव्य में भी है। नाम, स्थापना और द्रव्य में तीन भेद
जत्थ य ज जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरिया फलं च पाएण ।
जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ।। जह दीसइ ठवणिदे न तहा नामे न दव्विदे।।
(अनु ७) (विभा ५३)
जहां जितने निक्षेप ज्ञात हों, वहां उन सभी निक्षेपों
का उपयोग किया जाए और जहां बहुत निक्षेप ज्ञात न १. आकार भेद स्थापना इन्द्र (इन्द्र की प्रतिमा) का जैसा आकार
हों, वहां कम से कम निक्षेप-चतुष्टय-नाम, स्थापना, -कर्णकुण्डल, शिर:किरीट और करकूलिश-धारण
द्रव्य, भाव का प्रयोग अवश्य किया जाए। जन्य अतिशय और सौन्दर्य है, वैसा आकार नाम इन्द्र ५. उत्तर शब्द के निक्षेप या द्रव्य इन्द्र में प्रायः दिखाई नहीं देता।
नाम ठवणा दविए खित्तं दिसा तावखित्त पन्नवए । २. अभिप्राय भेद
पइकालसंचयपहाणनाणकमगणणओ भावे ॥ ___ स्थापनाकर्ता (मूर्तिकार) का जैसा अभिप्राय
(उनि १,चू पृ५,६; उशावृ प ३,४) (भाव) स्थापना इन्द्र (प्रतिमा) के प्रति होता है, वैसा
पन्द्रह निक्षेपों के माध्यम से उत्तर शब्द का नाम और द्रव्य इन्द्र के प्रति नहीं होता।
न्यास३. बुद्धि भेद
१. नाम उत्तर-किसी का नामकरण-उत्तर । इन्द्र-प्रतिमा को देख द्रष्टा में इन्द्र के प्रति जो २. स्थापना उत्तर-अक्ष आदि में उत्तर की स्थापना । आदर-सम्मान की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह नाम अथवा ३. द्रव्य उत्तर-१. आगमत:-उत्तर शब्द का ज्ञाता द्रव्य इन्द्र को देखकर नहीं होती। इसी प्रकार नमस्कार, किन्तु अनुपयुक्त। . पूजा, स्तुति आदि क्रियाएं तथा पुत्र, धन आदि फल की २. नो आगमतः के तीन भेद-१. जिसने अतीत प्राप्ति भी प्रायः स्थापना इन्द्र से जैसे सम्बद्ध है, वैसे . में 'उत्तर' शब्द को जाना उसका शरीर ।
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