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दशवकालिक नियुक्ति
नियुक्ति नियुक्तियां और नियुक्तिकार
भद्रबाहुस्वामी कहते हैं- अर्हत्, चौदह पूर्वी, दस आवस्सयस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । पूर्वी, ग्यारह अंगों के धारक और सब साधुओं को सूयगडे निज्जुत्ति वोच्छामि तहा दसाणं च ॥ नमस्कार कर सुविहितों पर अनुग्रह करने के लिए ओघकप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्सेव परमनिउणस्स । नियुक्ति की रचना करूंगा, जो चरणकरणानुयोग से सरिअपण्णत्तीए वोच्छं इसिभासिआणं च॥ सम्बद्ध है, अल्प अक्षर और महान् अर्थ वाली है।
(आवनि ८४,८५) यहां वृत्तिकार ने प्रश्न उठाया है कि भद्रबाहुस्वामी दस नियुक्तियां
चौदह पूर्वी थे, तब फिर उन्होंने अपने से न्यून दस पूर्वी १. आवश्यक निर्यक्ति ६. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति आदि को नमस्कार क्यों किया? इसके समाधान में कहा २. दशवकालिक" ७. बृहत्कल्प
गया है कि दस पूर्वी आदि श्रुतपरम्परा की अव्यवच्छित्ति ३. उत्तराध्ययन " ८. व्यवहार
में योगभूत बनते हैं, अतः इस गुणाधिक्य के कारण उन्हें ४. आचारांग " ९. सूर्यप्रज्ञप्ति " नमस्कार करना अनुपयुक्त नहीं है। ५. सूत्रकृतांग " १०. ऋषिभाषित
पुनः प्रश्न हुआ कि भद्रबाहुस्वामी ने ग्यारह अंगों स्थविराः--भद्रबाहुस्वाम्यादयस्तैः 'यत् कृतं' यद् के धारकों को नमस्कार क्यों किया ? इसके समाधान में दृब्धं श्रुतमावश्यकनियुक्त्यादिकं तद् अङ्गबाह्मम् अनङ्ग
कहा गया कि ओघनियुक्ति ग्रन्थ चरणकरणात्मक है। प्रविष्टमुच्यते।
(नन्दीमवृ प १६१) ग्यारह अंगों के धारक चरणकरणयुक्त होते हैं, क्योंकि स्थविर भद्रबाहस्वामी आदि ने आवश्यकनियुक्ति ग्यारह अंग चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत हैं। उपयोगिता आदि (दस नियुक्तियों)-श्रुतग्रन्थों की रचना की, जो के कारण उनको नमस्कार करना युक्त ही है। अंगबाह्य या अनंग- प्रविष्ट कहलाते हैं।
पिण्डनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति
दशाध्ययनपरिमाणश्चूलिकायुगलभूषितो दशवकालिको भगवंतो भद्रबाहस्वामिनः परमकरुणापरीतचेतस नाम श्रुतस्कन्धः । तत्र च पञ्चममध्ययनं पिण्डैषणानामकं, ऐदंयुगीनसाधनामुपकाराय आवश्यकस्य व्याख्यानरूपामिमां दशवकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहनियुक्ति कृतवन्तः ।
(आवमव प १,२) स्वामिना कृता। तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययनपरम कारुणिक भद्रबाहुस्वामी ने साधुओं के उपकार नियुक्तिरतिप्रभूतग्रन्थत्वात्पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थाके लिए आवश्यकसूत्र की व्याख्या स्वरूप आवश्यक- पिता, तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नाम कृतम् । नियुक्ति की रचना की।
(पिनि प १) ओघनियुक्ति
दशवकालिक के दश अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं।
दशवकालिक नियुक्ति चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु द्वारा अरहते वंदित्ता चउदसपुत्वी तहेव दसपुवी ।
कृत है । दशवकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डषणा' की एक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहू य॥ ओहेण उ निज्जुत्ति वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ।
निर्यक्ति परिमाण में विस्तृत होने से पृथक् स्वतंत्र ग्रन्थ के अप्पक्खरं महत्थं अणग्गहत्थं सूविहियाणं ॥ रूप में व्यवस्थापित है, वह पिण्ड-निर्यक्ति नाम से
भद्रबाहस्वामिनश्चतर्दशपूर्वधरत्वात दशपर्वधरादीनां प्रसिद्ध ह। च न्यूनत्वात्तत्कि तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति, दशवकालिकनियुक्ति अत्रोच्यते, गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, दुमपूप्फियाए णिज्जुत्तिसमासो वण्णिओ विभासा य। अतो न दोष इति। एवं व्याख्याते सत्याह पर:--- जिण-चोद्दसपुव्वी वित्थरेण कहयंति से अह्र ।। एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकाणां किमर्थं क्रियते ? इति, दुमपुप्फितअज्झयणविवरणं समासतोऽभिहितं । उच्यते, इह चरणकरणात्मिका ओघनियुक्तिः, एकादशाङ्ग- वित्थरेण सव्वक्खरसण्णिवायावदातागमबुद्धीहिं चोइससूत्रार्थधारिणश्च चरणकरणवन्त एव, एकादशानामङ्गानां पुव्वीहिं भण्णति ।
(दनि ५५ अच पृ ३५) चरणकरणानुयोगत्वात् उपयोगित्वेनांशेन तेषां नमस्कारः। द्रुमपुष्पिका (दशवैकालिक का प्रथम अध्ययन) की
(ओनि १,२ व प ३) संक्षिप्त नियुक्ति की गई है। जिन और सर्वाक्षरसन्निपात
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