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नय
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सम्यक्नय-मिथ्यानय
संगहं पविट्ठो, असंगहितो ववहारं, तम्हा संगहो ववहारो व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य के चार स्वभाव हैंरिजसुतो, सद्दाइया य एक्को, एवं चतुरा णया। गुरु, लघु, गुरुलघु, अगुरुलघु । जो वस्तु ऊपर फेंकने पर
(नन्दीचू पृ ७२,७३) सहज नीचे गिरती है, वह गुरु है, जैसे-पत्थर । जो नैगम नय के दो भेद हैं-संग्रह और असंग्रह। निसर्गतः ऊर्ध्वगति स्वभाव वाली है वह लघु है, जैसेसंग्रह संग्रह में और असंग्रह व्यवहार में समाविष्ट है। दीपकलिका । जो स्वभाव से तिरछी गति वाली है वह अत: नय चार हैं -संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द गुरुलघु है, जैसे-वायु । जो न गुरु है, न लघु है, सर्वत्र(समभिरूढ़ और एवंभूत नय शब्द नय के अन्तर्गत हैं)। गामी है, वह अगुरुलघु है, जैसे-आकाश, परमाणु आदि। ५. द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नय
८. ज्ञाननय-क्रियानय संगह-व्ववहारा पढमगस्स सेसा य इयरस्स ।।... नायंमि गिण्हिअव्वे अगिण्हअव्वं मि चेव अत्थं मि ।
(विभा ७५) जइअव्वमेव इअ जो उवएसो सो नओ नामं ।। संग्रह और व्यवहार ये दो नय द्रव्याथिक हैं। शेष
(आवनि १०५४) -ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-ये पांच नय हेय और उपादेय अर्थ को जानना ज्ञाननय है और पर्यायाथिक हैं।
उपादेय अर्थ में प्रवृत्त होना क्रियानय है। ६. अर्थनय-शब्दनय
सत्त मूलनया""सव्वेवि दोसु समोतरंति-उवएसे अत्थप्पवरं सद्दोवसज्जणं वत्थुमुज्जुसुत्तता ।
चरणे य । नेगमसंगहववहारा उवदेसनयो। उज्जुसुतसहप्पहाणमत्थोवसज्जणं सेसया बिति ॥
सद्दसमभिरूढएवंभूता चरणनयो । तत्र जाणणाणयो ज्ञानो(विभा २२६२)
पलब्धिमात्रः, अविशेषितं द्रव्यास्तिक इत्यर्थः । 'चरण
नयः पर्याय इत्यर्थः। प्रथम चार नयों में अर्थ प्रधान है और शब्द गौण,
(आवचू २ पृ५१)
सातों मूल नय उपदेश (ज्ञान) और चरण में समवइसलिए वे अर्थनय कहलाते हैं। शेष तीन नयों में शब्द
तरित होते हैं। प्रधान है और अर्थ गौण, इसलिए वे शब्दनय कहलाते
नैगम, संग्रह और व्यवहार उपदेश नय हैं।
ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत चरण नय हैं । ७. निश्चयनय-व्यवहारनय
ज्ञानोपलब्धि ज्ञान नय है-यह द्रव्यास्तिक है। लोगव्ववहारपरो ववहारो भणइ कालओ भमरो। चरणनय पर्यायास्तिक है। परमत्थपरो मण्णइ निच्छइओ पंचवण्णो त्ति ॥ ९. सम्यकनय-मिथ्यानय
(विभा ३५८९)
इय सव्वनयमयाइं परित्तविसयाई, समृदियाइं तु । लोक प्रसिद्ध अर्थ को मानने वाले विचार को
जइणं........ व्यवहार नय कहते हैं, जैसे-भौंरा काला होता है।।
(विभा १५३०) नैश्चयिक नय परमार्थ को मानता है। उसके प्रत्येक नय का विषय सीमित है-परस्पर निरपेक्ष अनुसार भौंरा पांच वर्ण वाला होता है।
होकर वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले नय निच्छयओ सव्वगुरुं सव्वलहं वा न विज्जए दव्वं ।
अप्रमाण हैं। वे ही जब परस्पर सापेक्ष होकर समुचित बायरमिह गुरुलहुयं अगुरुलहं सेसयं सव्वं ॥ रूप में सम्पूर्ण वस्तु का ग्रहण करते हैं, तब सम्यक्
(विभा ६६०) होते हैं। यही जैनमत है। निश्चयनय के मत में कोई भी वस्तु एकान्त गुरु या एवं विवयंति नया मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। एकान्त लघु नहीं है । जो बादर है, वह गुरुलघु है, शेष
इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवज्जमच्चतं ।। सब अगुरुलघु हैं।
(विभा ७२) गुरुयं लहयं उभयं नोभयमिति वावहारियनयस्स । इस प्रकार निरपेक्ष नय मिथ्या अभिनिवेश के कारण दव्वं, लेटठं दीवो वाऊ वोमं जहासंखं ।।। परस्पर विवाद करते हैं। जैन दर्शन सब नयों को मान्य
(विभा ६५९) करता है, इसलिए वह अत्यन्त निर्दोष है।
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