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नमस्कार महामंत्र
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नमस्कार के पद पांच क्यों ? ५. नमस्कार की स्थिति
द्वादशांग के श्रुतस्कंधों का अनुचिन्तन नहीं कर सकता, वोपडतोमन ली नोट जरो। अतः उस आपदा की स्थिति में नमस्कार मंत्र का उक्कोसद्विइ छावद्वि सागरा... ॥ निरंतर पुनः-पुनः स्मरण किया जाता है।
भी इस मंत्र के अक्षर अल्प और अर्थ महान है, क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से नमस्कार की जघन्य और
और
यह यह द्वादशांग के अर्थ का संग्राहक है।
एकम्मि वि जम्मि पए संवेगं कुणइ वीयरायमए। उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त है और लब्धि की अपेक्षा से
सो तेण मोहजालं छिदइ अझप्पओगेणं ॥ जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति साधिक
ववहाराओ मरणे तं पयमेक्कं मयं नमोक्कारो। छियासठ सागर की होती है।
अन्नं पि निच्छयाओ तं चेव य बारसंगत्थो । ६. नमस्कार की निष्पत्ति
जं सोऽतिनिज्जरत्थो पिंडयत्थो वन्निओ महत्थो वि। इह लोइ अत्थकामा आरुग्गं अभिरई य निप्फत्ती।
कीरइ निरंतरमभिक्खणं तु बहुसो बह वारा ॥ सिद्धी य सग्गसुकुलप्पच्चायाई य परलोए ।
(विभा ३०२१-३०२३) (आवनि १०११) वीतराग का एक पद-वचन भी व्यक्ति में वैराग्य - नमस्कार महामंत्र का जाप करने से इस लोक में उत्पन्न कर देता है, अध्यात्मयोग से मोहग्रंथि को छिन्न अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति-पुण्य की निष्पत्ति और कर देता है । नमस्कार मंत्र अनेक पदात्मक है, द्वादशांग परलोक में सिद्धि, स्वर्ग, सुकुल में जन्म आदि की गणिपिटक का तात्पर्यार्थ है, महान् निर्जरा का हेतु है। उपलब्धि होती है।
यद्यपि व्यवहार में इसे एक पद भी कहा जा सकता है, ७. नमस्कार का महत्त्व
किंतु निश्चय दृष्टि से यह सम्पूर्ण द्वादशांग है, क्योंकि
यह संवेग अथवा वैराग्य का जनक है। जिस पद या जलणाइभए सेसं मोत्तुं पेगरयणं महामोल्लं ।
वाक्य से व्यक्ति में विराग उत्पन्न होता है, वही पद जुधि वातिभए घेप्पइ अमोहमत्थं जह तहेह ।।
उस व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण ज्ञान है। अत: मरणकाल मोत्तुं पि बारसंगं मरणाइ भएसु कीरए जम्हा।
में इस मंत्र का निरंतर पूनः-पूनः स्मरण किया जाता अरहंतनमोक्कारो तम्हा सो बारसंगत्थो।। सव्वं पि बारसंगं परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं। तक्कारणभावाओ कह न तयत्थो नमोक्कारो ।।
८. नमस्कार के पद पांच क्यों ? न ह तम्मि देसकाले सक्को बारसविहो सुयक्खंधो।
नवि संखेवो न वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्धसाहूणं । सव्वो अणुचितेउं धंतं पि समथचितेणं ।।
वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुज्जई तम्हा ।। (विभा ३०१६-३०१९)
अरहंताई निअमा साहू साहू अ तेसु भइअव्वा । जैसे घर में आग लगने पर अन्य धनधान्य सामग्री
तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ।।
(आवनि १००६,१००७) को छोड़कर महान् मूल्य वाले एक रत्न को ग्रहण किया जाता है, युद्धक्षेत्र में अमोघ अस्त्र को ग्रहण किया जाता
शिष्य ने पूछा-भंते ! सूत्र दो प्रकार का होता
है-संक्षिप्त और विस्तृत । यह पंचनमस्कार न संक्षिप्त है, वैसे ही मृत्यु के समय द्वादशांग आगमों को छोड़कर नमस्कारमंत्र का स्मरण किया जाता है। इसका फलित
है, न विस्तृत । यदि संक्षेप में होता तो इसके दो ही पद
होते-सिद्ध और साधु । परिनिर्वत अर्हतों का सिद्ध यह है कि नमस्कार मंत्र द्वादशांग का तात्पर्यार्थ है।
पद में और शेष पदों का साधु पद में समाहार हो जाता जैसे समग्र द्वादशांग परिणामविशुद्धि का हेतु है, वैसे ही ही अर्हत् नमस्कार परिणामविशुद्धि का हेतु है, अतः यह यदि विस्तार से होता तो इसके अनेक पद होतेद्वादशांग का वाचक है।
अर्हत् ऋषभ, अर्हत् अजित आदि, तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध कोई भी श्रुतसम्पन्न व्यक्ति अत्यन्त समर्थ होने पर आदि-आदि। अत: पंचविध नमस्कार युक्तियुक्त प्रतीत भी तात्कालिक मृत्यु, भय आदि की स्थिति में सम्पूर्ण नहीं होता।
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