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ध्यान
ध्यान के अयोग्य
मुझे ऐसी भाषा बोलनी चाहिए और ऐसी नहीं, संकाइदोसरहिओ पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ । ऐसा विमर्श कर बोलने वाले के वाचिक ध्यान होता है। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ।। ७. ध्यान के सात विकल्प
नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं ।
चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।। माणस्स सत्त भंगा-मानसं, वाइयं, कायिगं,
सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य । माणसं वाइयं च, वाइगं काइगं च, माणसं काइगं,
वेरग्गभावियमणो माणंमि सुनिच्चलो होइ। मणवयणकायिगंति। एत्थ पढमो भंगो छउमत्थाणं
(ध्यानशतक ३०-३४) सम्मट्ठिीमिच्छादिट्ठीणं सरागवीतरागाणं भवति ।
जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले बितितो तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवलीणं च धम्म
अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर कथेन्ताणं । काइगं तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवलीणं और
लेता है । भावनाएं चार प्रकार की हैं - च चरमसमयसजोगित्ति ताव भवति । चउत्थो पंचमो य १. ज्ञान भावना-जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता जथा पढमो। छटो जथा सजोगिकेवलीणं । सत्तमो जथा है, ज्ञान में मन को स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ पढमो।
(आवचू २ पृ८१,८२) की विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ ध्यान के सात विकल्प हैं
को जान लेता है, वह सुस्थिर चित्त से ध्यान कर १. मानसिक ध्यान--यह छद्मस्थ, सम्यग्दृष्टि, मिथ्या- सकता है। दृष्टि, सराग और वीतराग के होता है।
२. दर्शन भावना-जो अपने को शंका आदि दोषों से २. वाचिक ध्यान--यह छद्मस्थ और धर्मकथा में संलग्न रहित और प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर सयोगी केवली के होता है।
लेता है, वह दर्शन-शुद्धि के कारण ध्यान में अभ्रान्त ३. कायिक ध्यान-यह छद्मस्थ और सयोगी केवली के चित्त वाला हो जाता है। चरम समय पर्यन्त होता है।
३. चारित्र भावना-चारित्र भावना से नए कर्मों का ४. मानसिक-वाचिक ध्यान-प्रथम विकल्प तुल्य ।
अग्रहण, पूर्वसंचित कर्मों का निर्जरण तथा शुभकर्मों ५. वाचिक-कायिक ध्यान-प्रथम विकल्प तुल्य ।
का ग्रहण और ध्यान-ये बिना किसी प्रयत्न के ही
उपलब्ध हो जाते हैं। ६. मानसिक-कायिक ध्यान-सयोगी केवली।
४. वैराग्य भावना-जो जगत के स्वभाव को जानता ७. मानसिक-वाचिक-कायिक ध्यान प्रथम विकल्प
है, निस्संग है, अभय है और आशंसा से विप्रमुक्त है, तुल्य ।
वह वैराग्य भावना से भावित मन वाला होता है। ८. दृष्टिवाद और ध्यान
वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो जाता है। मणसा वावारतो, कायं वायं च तप्परीणामो ।
१०. ध्यान के अयोग्य भंगिअसुयं गुणतो, वइ तिविहेवि झाणम्मि ।।
(आवनि १४७८)
पयलायंत सुसुत्तो, नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा ।
अव्वावारिअचित्तो, भंगिक श्रुत (दृष्टिवाद का अंश या अन्य विकल्प
जागरमाणोवि एमेव ।
अचिरोववन्नगाणं, मुच्छिअअव्वत्तमत्तसुत्ताणं । प्रधान श्रुत) का गुणन करने वाला व्यक्ति तीनों ध्यानों
ओहाडिअमव्वत्तं, च होइ पाएण चित्तंति ॥ में प्रवृत्त होता है। उसका मन भंगिक श्रुत में नियोजित होता है, वचन से उसका उच्चारण और काया
(आवनि १४८१, १४८२)
१. जो प्रचलायमान और सुषप्त है, वह न शुभ ध्यान अंगुलियों द्वारा उसका लेखन या गुणन किया जाता है।
में प्रवृत्त होता है और न अशुभ ध्यान में। इसी ६. ध्यान को योग्यता : भावना
प्रकार अव्यापारित चित्त वाला व्यक्ति जागता हआ पुवकयब्भासो भावणाहि माणस्स जोग्गयमुवेइ ।
भी न शुभ में प्रवृत्त होता है और न अशुभ में। ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ।।
२. नवजात शिशु, मूच्छित, अव्यक्तचेता, मत्त और णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च । सुप्त-इनका चित्त प्रायः स्थगित और अव्यक्त नाणगुणमूणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ। होता है। इन अवस्थाओं में ध्यान नहीं होता।
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