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वाचिक-कायिक ध्यान
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ध्यान
योग
शुक्लध्यान लेश्या
गति १. पृथक्त्व वितर्क सविचार | शुक्ललेश्या तीनों योग (मन, वचन, काय) | अनुत्तर विमान २. एकत्व वितर्क अविचार शुक्ललेश्या कोई एक योग
| अनुत्तर विमान ३. सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति परम शुक्ललेश्या | काययोग
| सिद्धगति ४. समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति लेश्यातीत अयोग
| सिद्धगति निष्पत्ति
से युक्त हैं, वे त्रिभुवन-विषयभूत मन रूपी विष को एक ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च ।
परमाणु में निरुद्ध कर, उसका (मन का) अपनयन कर दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ॥
देते हैं।
(ध्यानशतक ९४) ६. वाचिक-कायिक ध्यान शुभ आश्रव, संवर और निर्जरा की विशेष प्राप्ति
सुदढप्पयद्यवावारणं निरोहो व विज्जमाणाणं । 'अनत्तरविमानवासी देवों का सुख मिलना-यह
झाणं करणाण मयं न उ चित्तनिरोहमित्तागं ।। शक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों का फल है तथा अंतिम
(विभा ३०७१) दो प्रकारों का फल है-परिनिर्वाण ।
मात्र चित्त का निरोध ही ध्यान नहीं है। मन,
वचन और काया-इन तीनों करणों को सुदढ़ प्रयत्न से केवली में शुक्लध्यान कैसे ?
एकाग्रता में व्याप्त करना अथवा उनका निरोध करना पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि ।
भी ध्यान है। सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य॥ काएविय अज्झप्पं, वायाइ मणस्स चेव जह होइ । चित्ताभावेवि सया सुहमोवरयकिरियाइ भण्णंति ।
कायवयमणोजुत्तं, तिविहं अज्झप्पमाहंसु ॥ जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई॥ अध्यात्म ध्यानमित्यर्थः । (ध्यानशतक ८५,८६)
(आवनि १४७० हावृ पृ १८९) भवस्थ सयोगी या अयोगी केवली के चित्त का जैसे मन में अध्यात्म (ध्यान) होता है, वैसे ही अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है। अतः शरीर और वचन में भी अध्यात्म होता है। शरीर में उनमें शुक्लध्यान के अंतिम दो प्रकार होते हैं। एकाग्रतापूर्वक चंचलता का निरोध करना कायिक ध्यान उनमें ध्यान का अस्तित्व मानने के चार हेतु हैं
है। वचन में एकाग्रतापूर्वक असंयत भाषा का निरोध १. जीव के पूर्व प्रयोग के कारण ।
करना वाचिक ध्यान है। तीर्थंकरों ने अध्यात्म (ध्यान) २. कर्मों की निर्जरा के कारण ।
के तीन प्रकार बताएं हैं३. शब्द के अनेक अर्थों के कारण ।
१. मन में अध्यात्म-मानसिक ध्यान (मनोगुप्ति) ४. आगमिक साक्षी के कारण ।
२. वचन में अध्यात्म- वाचिक ध्यान (वाग्गुप्ति) जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरुभए डंके ।
३. काय में अध्यात्म कायिक ध्यान (कायगुप्ति) तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणवरमंतजोगेणं ।। मा मे एजउ काउत्ति, अचलओ काइअं हवइ झाणं । तह तिहयणतणविसयं मणोविसं जोगमंतबलजुत्तो । एमेव य माणसि, निरुद्धमणसो हवइ झाणं ।। परमाणु म्मि निरंभइ अवणेइ तओवि जिणवेज्जो ॥
(आवनि १४७४) (ध्यानशतक ७१,७२)
'मेरा शरीर कंपित न हो'-ऐसा सोचकर जो
निश्चल होता है, उसके कायिक ध्यान होता है। इसी जैसे सारे शरीर में फैले हए विष को मंत्र-प्रयोग से मानिसमा मानसिक ध्यान है। सर्प द्वारा डसे हुए स्थान पर एकत्रित कर विशेष मंत्र
एवं विहा गिरा मे, वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्वा । प्रयोग से उसे निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार अर्हत्
इअ वेआलियवक्कस्स, भासओ वाइअं झाणं ॥ रूपी वैद्य, जो मंत्र (जिन-वचन) और ध्यान के सामर्थ्य
(आवनि १४७७)
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