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ध्यान
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शुक्लध्यान : योग"..
४. समूच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति-शैलेशी अवस्था को शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद अनुत्तरोपपात के अभिप्राप्त केवली मेरु की भांति निष्प्रकंप हो जाता है। मुख चतुर्दशपूर्वी मुनि के होते हैं। उसके शुक्ललेश्या और उसमें सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है और वज्रऋषभनाराच संहनन होता है। उस अवस्था का पतन नहीं होता।
शुक्लध्यान का प्रथम भेद सराग चतुर्दशपूर्वी और
दूसरा भेद वीतराग चतुर्दशपूर्वी के होता है । लक्षण अवहासंमोहविवेगविउसग्गा तस्स होंति लिंगाइं ।।
आलंबन लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो।।
अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहिं ।
आलंबणाई जेहिं सुक्कझाणं समारुहइ ।। सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥
(ध्यानशतक ६९) देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे ।
शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैंदेहोवहिवोसगं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥
१. शान्ति-क्षमा। (ध्यानशतक ९०-९२)
२. मार्दव-मृदुता। शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं
३. आर्जव-ऋजुता। १. अव्यथ-परीषह और उपसर्गों से न विचलित
४. मुक्ति-निर्लोभता। होना और न भयभीत होना ।
शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएं २. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थों और देवमाया में मूढ न
सुक्कझाणसुभाविअचित्तो चितेइ झाणविरमेऽवि । होना।
णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो । ३. विवेक-शरीर तथा सब संयोगों से आत्मा को आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भिन्न जानना, देखना।
भवसंताणमणतं वत्थणं विपरिणामं च ।। ४. व्युत्सर्ग---शरीर और उपधि में सर्वथा निस्संग
(ध्यानशतक ८७,८८)
शुक्लध्यान से सुभावित चित्त वाला चारित्रसम्पन्न रहना।
मुनि ध्यान से उपरत होने पर भी सदा चार अनुप्रेक्षाओं अधिकारी
का चिन्तन करता हैएए च्चिअ पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा ।
१. अपाय अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ।।
२. अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन (ध्यानशतक ६४)
करना। धर्म्यध्यान के अभ्यास में परिपक्व सुप्रशस्त संहनन
३. अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा संसारपरम्परा का चिन्तन वाले चतुर्दशपूर्वी मुनि शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों के
करना। ध्याता होते हैं। उसका तीसरा प्रकार सयोगी केवली के ४. विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणामों और चौथा प्रकार अयोगी केवली के होता है।
का चिन्तन करना। एतं उभयं सामिविसेसेण सुक्कलेसस्स चोद्दसपुव्वधर- शुक्लध्यान : योग-लेश्या-गति स्स अणत्तरोववाताभिमुहस्स उत्तमसंघयणस्स ।
जोगे जोगेसु वा पढम, बीयं योगंमि कण्हुयी ।
(दअचू पृ १८) ततियं च काइके जोगे, चउत्थं च अजोगिणो ।। सूतणाणे उवउत्तो, अत्थंमि य वंजणंमि सवियारं । पढमबितियाओ सुक्काए, ततियं परमसुक्कियं । झायति चोहसपूवी, पढमं सुक्कं सरागो तु ।। लेश्यातीतं उवरिल्लं, होति ज्झाणं वियाहितं ।। सुतणाणे उवउत्तो, अत्थंमि य वंजणंमि अवियारं । अणु त्तरेहिं देवेहिं, पढमबीएहिं गच्छती । झायति चोद्दसपुव्वी, बीयं सुक्कं विगतरागो ।। उवरिल्लेहिं झाणे हिं, सिज्झती निरयो धुवं ।। (आवचू २ पृ८६)
(आव २ पृ८६)
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