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शुक्लध्यान का निर्वचन
अनुप्रेक्षाएं
भाणोवरमेवि मुणी चित्रमणिच्चा इभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्वि ॥ (ध्यानशतक ६५ ) अणुहाओ, तं जहा अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुपेहा, एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । ( अचू पृ १८ )
धर्म्यध्यान से सुभावित चित्त वाले मुनि के लिए ध्यान से उपरत होने पर चार अनुप्रेक्षाएं करणीय हैंअनित्य, अशरण, एकत्व और संसार अनुप्रेक्षा ।
( द्र. अनुप्रेक्षा )
धम्iध्यान : लेश्या अध्यवसाय - गति
धम्मज्झाणं भियायतो, सुक्कलेसाए वट्टती । faragi मिठामि सचरिती सुसंजतो ॥ एवं पम्हलेसाए मज्झियगंमि ठाणंमि, तेऊले साए fugift ठाणंमि ।
कोवनिग्गहसंजुत्तो, सुक्कलेसाणुरंजितो । धम्माण कियायतो, देवयत्तं निगच्छती ॥ ..... उववातो कप्पतीते कप्पंमि व अण्णतरगंमि ॥ ( आवचू २ पृ८५)
गति देवगति — कल्पोपपन्नकल्पातीत
देवगति — कल्पोपपन्नकल्पातीत
देवगति कल्पोपपन्न - कल्पातीत
लेश्या
शुक्ल
पद्म
तेजस्
अध्यवसाय
क्रोध - मान-माया - लोभ
का उत्कृष्ट निग्रह
क्रोध - मान-माया - लोभ का मध्यम निग्रह क्रोध - मान-माया - लोभ
का जघन्य निग्रह
निष्पत्ति
होंति सुहासव संवरविणिज्जरामरसुहाई विउलाई । भाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स || (ध्यानशतक ९३ ) धर्म्यध्यान से शुभ आश्रव, संवर, निर्जरा, विपुल देवसुख आदि शुभ अनुबंध वाले फलों की प्राप्ति होती है ।
५. शुक्लध्यान का निर्वाचन
शुक्लं – शुचि -- निर्मलं
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सकल मिथ्यात्वादिमल
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शुक्लध्यान के प्रकार
विलयनात् । यद्वा शुगिति दुःखमष्टप्रकारं वा कर्म ततः शुचक्नमयति निरस्यतीति शुक्लम् । ( उशावृ प ६०९) ● जो मिथ्यात्व आदि समग्र अशुद्धियों का विलय हो जाने के कारण निर्मल है, वह शुक्लध्यान है । ● जो दुःख अथवा आठों कर्मों का निरसन करता है, वह शुक्लध्यान है ।
प्रकार
उपायइभंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थु मि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगय सुयाणुसारेणं ।। सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्क सविआरमरागभावस्स ।। जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उपाय भंगाइयाणमेगम्मि पज्जाए || अविचारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बितिय सुक्कं । पुव्वगय सुआ लंबण मेगत्त वितक्कमवियारं ॥ निव्वाणगमणकाले केवलिणी दरनिरुद्ध जोगस्स । सुमरिया नियतिइयं तणुकायकिरियस्स ॥ तस्सेव य सेलेसि गयस्स सेलोव्व निष्पकंपस्स । वोच्छिन्न किरियामप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ॥ (ध्यानशतक ७७-८२)
चार प्रकार
शुक्लध्यान १. पृथक्त्व वितर्क - सविचार - पूर्वगतश्रुत के अनुसार एक द्रव्य में विद्यमान उत्पाद, स्थिति, भंग आदि पर्यायाओं का अनेक नयों से चिन्तन करना । सविचार का अर्थ है -अर्थ से अर्थान्तिर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और एक योग से दूसरे योग में संक्रमण
करना ।
२. एकत्व - वितर्क - अविचार - उत्पाद, स्थिति, भंग आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय में अपने मन को, निर्वातगृह में रखे हुए प्रदीप की भांति निष्प्रकम्प बनाकर चिन्तन करना । यह भी पूर्वगतश्रुत • के आलम्बन के आधार पर होता । इसमें अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर में संक्रमण नहीं होता ।
३. सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति - मोक्षगमन के प्रत्यासन्न काल में केवली के मन और वचन की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है, किन्तु उच्छ्वास - निःश्वासरूप काया की सूक्ष्म प्रवृत्ति वर्तमान रहती है। यह शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार 1
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