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संस्थानविचय
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धर्म्यध्यान का अधिकारी
अपायविचय ध्यान में ध्यानी चिन्तन करता है- ० क्षिति, वलय, द्वीप, सागर, नरक, विमान और हिंसा से प्राणी नरक में जाता है, अल्पायुष्क होता है, भवन के संस्थान से संस्थित, आकाश, वायु आदि काणा-लूला आदि होता है, यह आज्ञा-भगवान् का पर प्रतिष्ठित शाश्वत लोकस्थिति का चिन्तन करे । निरूपण है। अथवा ध्यानी इसमें मिथ्यात्व, अविरति, ___ इस प्रकार विविध पदार्थों की विभिन्न प्रमाद, कषाय, योग आदि के अपायों का चिन्तन करता आकृतियों को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना के अपायों संस्थानविचय ध्यान है। का अनुचिंतन करता है।
आलम्बन रागबोसकसायारावादिकिरियासु वद्रमाणाणं । इहपरलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी ॥
आलंबणाइ वायणपुच्छणपरियट्टणाणुचिताओ ।
सामाइयाइयाई सद्धम्मावस्सयाइं च ।। (ध्यानशतक ५०)
(ध्यानशतक ४२) वर्जनीय का परिवर्जन करने वाला मुनि राग,
धर्म्यध्यान के चार आलम्बन हैंद्वेष, कषाय, आश्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान व्यक्तियों
१. वाचना ३. परिवर्तना के इहलोक और परलोक के अपायों (दोषों) का चिन्तन
२. प्रच्छना ४. अनुचिन्ता (अनुप्रेक्षा) करता है-यह धर्म्यध्यान का अपायविचय नामक दूसरा
ये चारों श्रुतधर्मानुगामी आलम्बन हैं। सामायिक प्रकार है।
आदि तथा सद्धर्मावश्यक आदि चारित्रधर्मानुगामी विपाकविचय
आलम्बन हैं। पयइठिइपएसाणुभावभिन्नं सुहासुहविभत्तं । लक्षण जोगाणुभावजणियं कम्म विवागं विचितेज्जा ॥
आगमउवएसाणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । (ध्यानशतक ५१)
भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंग ।। प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव के भेद से
(ध्यानशतक ६७) भिन्न, शुभ और अशुभ में विभक्त, योग तथा अनुभाव
धर्म्यध्यान के चार लक्षण - -प्रमाद से उत्पन्न कर्मविपाक को ध्येय बनाकर
१. आगमरुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना। उसमें एकाग्र होना विपाकविचय ध्यान है।
२. उपदेशरुचि-उपदेश से प्रवचन में श्रद्धा होना। संस्थानविचय
३. आज्ञारुचि तीर्थंकर की आज्ञा की प्रशंसा करना। जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई ।
४. निसर्गरुचि-स्वभाव से ही जिनप्रवचन में श्रद्धा उप्पायट्ठिइभंगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ।।
होना। पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइनिहणं जिणक्खायं । नामाइभेयविहिअंतिविहमहोलोयभेआइं॥ अधिकारी खिइवलयदीवसागरनिरयविमाणभवणाइसंठाणं ।
सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य । वोमाइपइट्ठाणं निययं लोगट्ठिइविहाणं ।।
झायारो नाणधणा धम्मज्माणस्स निद्दिट्ठा ॥ (ध्यानशतक ५२-५४)
(ध्यानशतक ६३) • अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के लक्षण, संस्थान,
जो ज्ञानी मुनि अप्रमत्त हैं, उपशांतमोह या क्षीणआसन, विधान, मान, उत्पाद, स्थिति, भंग और पर्याय का चिन्तन करे।
मोह हैं, वे धर्म्य ध्यान के अधिकारी हैं। ० लोक पंचास्तिकायमय, अनादि-अनन्त, नाम आदि
तं इंदियादिप्पमातणियत्तमाणसस्सेति भण्णति निक्षेपों के भेद से अवस्थापित, अधोलोक, तिर्यकस्थापित अधीनो अपमत्तसंजयस्स ।
(दअचू पृ १८) लोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से विभक्त है। (लोक इन्द्रिय, कषाय आदि प्रमादों से निवृत्त चित्त बाले के इस संस्थान का चिन्तन करे)।
अप्रमत्तसंयत के धर्म्यध्यान होता है।
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