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होना।
धर्म्यध्यान
अपायविचय २. बहुलदोष-रौद्रध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त धर्म्य ध्यान के चार प्रकार हैं---
१. आज्ञाविचय ३. विपाक विचय ३. नानाविधदोष-- चमड़ी उधेड़ने, आंखें निकालने २. अपायविचय ४. संस्थानविचय __ आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना। आज्ञाविचय ४. आमरणदोष-मरणान्त तक हिंसा आदि करने में
आणाविजए आणं विवेएति । जथा पंचत्थिकाए अनुताप न होना।
छज्जीवनिकाए अट्ठ पवयणमाता। अण्णे य सुत्तनिबद्धे
भावे अबद्धे च पेच्छ कहं आणाए परियाणिज्जति ? एवं परवसणं अहिनं दइ निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो ।
चितेति भासति य । तथा पुरिसादिकारणं पडुच्च किच्छाहरिसिज्जइ कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो॥
सज्झेसु हेतुविसयातीतेसुवि वत्थुसु सव्वण्णुणा दिठेसु (ध्यानशतक २७)
एवमेव से तं ति चितंतो भासंतो य आणा विवेयेति । - जो रौद्रध्यान में संलग्न है, वह दूसरों के दुःख का
(आवचू २ पृ८४) अभिनन्दन करता है, आनन्दित होता है। वह निरपेक्ष अतीन्द्रिय विषय अथवा प्रवचन के निर्णय में एकाग्र होता है-उसके मन में पाप का भय नहीं रहता। वह होना आज्ञाविचय है। जैसे -पांच अस्तिकाय, षट जीवनिर्दय और अनुतापरहित होता है। वह पाप में प्रवृत्त निकाय, आठ प्रवचनमाताएं आदि तथा इसी प्रकार होकर प्रसन्न होता है। ये रौद्रध्यानी के लक्षण हैं। आगम में प्रतिपादित या अप्रतिपादित अनेक तथ्य हैं। ये
सारे किस प्रकार आज्ञा से विवेचित होते हैं-ऐसा अधिकारी
चिन्तन करना, प्रतिपादन करना आज्ञा विचय ध्यान है। .."अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं ॥
तथा किसी पुरुष के पूछे जाने पर ऐसे कठिन विषयों (ध्यानशतक २३)
तथा हेतु आदि से निरपेक्ष विषयों, जिन्हें सर्वज्ञ ने देखा वह अश्रेयस्कर ध्यान अविरत और देश-असंयत
है, कहा है, के विषय में ये ऐसे ही हैं, ऐसा चिन्तन (श्रावक) के होता है।
करना, प्रतिपादन करना आज्ञाविचय ध्यान है। रौद्रध्यान : गति और लेश्या
सुनिउणमणाइनिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्छ । .."रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयगइमूलं ॥
अमियमजियं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥ कावोयनीलकाला लेसाओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ।
झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ।।
अनिउणजणदुण्णेयं नयभंगपमाणगमगहणं ।। (ध्यानशतक २४,२५)
(ध्यानशतक ४५,४६) रौद्रध्यान भवपरंपरा को बढ़ाने वाला तथा नरक जगत्प्रदीप अर्हत की आज्ञा का आशंसा से मुक्त गति का मूल है । इस ध्यान के समय व्यक्ति की कापोत, होकर ध्यान करे । वह आज्ञा अतिनिपुण, अनादि-अनन्त, नील और कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अत्यन्त संक्लिष्ट
ये तीनों लेण्या अत्यन्त संक्लिष्ट प्राणियों के लिए हितकर, सत्यग्राही, अनर्घ्य, अपरिमित, होती हैं। ये कर्मपरिणामजनित होती हैं।
अपराजित, महान् अर्थवाली, महान् सामर्थ्य से युक्त,
महान् विषयवाली, अनिपुण लोगों द्वारा अज्ञेय तथा नय, ४. धर्म्यध्यान
भंग, प्रमाण और गम (विकल्प) से गहन है। खमादिधम्माऽणपेतं धम्म । (दअचू पृ १६) अपायविचय क्षमा आदि धर्मों को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्य
अवाय विजयेति, पाणातिवातेणं निरयं गच्छति ध्यान है।
अप्पाउओ काणकुंटादी भवति एवमादि त्वाज्ञा, अहवा प्रकार
मिच्छत्तअविरतिपमायकसायजोगाणं अवायमणुचितेति । ___धम्म चउव्विहं-आणाविजए, अवायविजए, णाणदंसणचरित्ताणं वा विराधणावायमणुचितेति । विपाकविजए, संठाणविजए। (दअचू पृ १७)
(आवचू २ ५८४)
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