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ध्यान
ये चारों इष्ट के वियोग, अनिष्ट के योग और वेदना के निमित्त से उत्पन्न होते हैं ।
-अधिकारी
तदविरदेस विरया पमायपरसंजयाणु गं झाणं |..." (ध्यानशतक १८ ) यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत ( श्रावक ) और प्रमत्तसंयत (छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के होता है । आर्त्तध्यान : लेश्या अध्यवसाय - गति
तिव्वकोधोदयाविट्ठो, किण्हलेसाणुरंजितो । अट्ट झाणं क्रियायं तो, तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ मज्झिम कोधोदयाविट्ठो, नीललेसाणुरंजितो । अट्ठा किया तो तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ मंदकोधोदयाविट्ठो, कासारंजित | अट्टा झियायंतो, तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ ( आवचू २ पृ८३)
गति
तिर्यंच
लेश्या
कृष्ण
नील कापोत मंद
अध्यवसाय
उत्कृष्ट क्रोध - मान-माया-लोभ
मध्यम
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कावोयनीलकाला लेस्साओ णाइसकिलिट्ठाओ । अभाणोगस्स कम्मपरिणामणिआओ ।। (ध्यानशतक १४ )
ध्यान करते हुए व्यक्ति की कापोत, नील और कृष्ण-- ये तीनों लेश्याएं अतिसंक्लिष्ट नहीं होतीं । ये लेश्याएं कर्म - परिणामजनित होती हैं ।
रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया । अट्टम य ते तिणिवि, तो तं संसारतरुबीयं ॥ (ध्यानशतक १३ )
राग, द्वेष और मोह - तीनों संसार के हेतु हैं । ये आर्त्तध्यान में विद्यमान रहते हैं इसलिए आर्त्तध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है ।
३. रौद्रध्यान का निर्वाचन
रोदयत्यपरानिति रुद्र:- प्राणिवधादिपरिणत आत्मैव तस्येदं कर्म रौद्रम् | ( उशावृ प ६०९ ) जो दूसरों को रुलाता है, वह रुद्र है । चेतना की प्राणिवध आदि के रूप में क्रूरतामय एकाग्र - परिणति
रौद्रध्यान है ।
प्रकार
सत्तवह-वह-बंधण- डहणं कणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्विणमणसोऽहमविवागं ॥ पिसुणासभा सम्भूय भूयधायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽइसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥
तह तिव्वको हलोहाउलस्स भूओवघायणमणज्जं । परदव्वहरण चित्तं परलोयावायनिरवेक्खं ॥ सद्दाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणिट्ठ । सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥
एयं चव्विहं रागदोसमोहाउलस्स जीवस्स । (ध्यानशतक १९ - २२, २४) रौद्रध्यान के चार प्रकार हैं
१. हिसानुबंधी निर्दयी व्यक्ति का प्राणियों के वध, वेध, बंधन, दहन, अंकन और मारने का क्रूर अध्यवसाय होना तथा अनिष्ट विपाक वाले उत्कट क्रोध के ग्रह से ग्रस्त होना ।
असत्य
२. मृषानुबंधी - माया करने, दूसरे को ठगने तथा अपना पाप छिपाने के लिए चुगली करने तथा असभ्य, और प्राणीघातक वचन कहने में दृढ़ अध्यवसाय का होना । ३. स्तेयानुबंधी - तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने की इच्छा करना तथा पारलौकिक दोषों से निरपेक्ष रहना ।
रोद्रध्यान
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४. विषयसंरक्षणानुबंधी - - शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति के साधनभूत धन के संरक्षण के लिए तत्पर रहना, अनिष्ट चिन्ता में व्यापृत रहना, सबके प्रति शंकाशील होना, दूसरों की घात करने की कलुषता से आकुल रहना ।
रौद्रध्यान के ये चारों प्रकार रागद्वेष और मोह से आकुल व्यक्ति के होते हैं ।
लक्षण
लिंगाई तस्स उस्सण्णबहुलनाणा विहामरण दोसा । तेसि चिय हिसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स || (ध्यानशतक २६ )
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रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं१. उस्सन्नदोष रौद्रध्यान के चार प्रकारों में से किसी एक में बहुलतया प्रवृत्त होना ।
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