________________
आर्तध्यान का निर्वचन
३५९
ध्यान
१. ध्यान की परिभाषा
२. आर्तध्यान का निर्वचन जं थिरमझवसाणं तं झाणं............ ।
ऋतं-दुःखम् । ऋतशब्दो दुःखपर्यायवाच्याश्रीयते, अंतोमहत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थ म्मि । ऋते भवमार्तम् ।
(उशावृ प ६०९) छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥
ऋत का अर्थ है-दुःख । चेतना की अरति या
वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा जाता है। जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है। छद्मस्थ के प्रकार एक वस्तु में चित्त का एकाग्रतात्मक ध्यान अन्तर्मुहूर्त अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । मात्र का होता है। फिर वह ध्यानधारा भिन्न पर्याय में
धणियं विओगचितणमसंपओगाणुसरणं च ।। परिवर्तित हो जाती है। केवली के योगनिरोधात्मक ध्यान तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । होता है।
तदसंपओगचिता तप्पडियाराउलमणस्स ।। गाढालंबणलग्गं, चित्तं वृत्तं निरयणं झाणं ।
इद्राणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । सेसं न होइ झाणं, मउअमवत्तं भमंतं वा ।।
अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ।। (आवनि १४८३)
देविंदचक्कवट्टित्तणाइ गुणरिद्धिपत्थणामईयं । आलम्बन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न तथा निष्प्रकम्प
अहम नियाणचितणमण्णाणाण गयमच्चतं ।। चित्त ध्यान है। आलम्बन में मृदू भावना से संलग्न,
(ध्यानशतक ६-९) अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता ।
आर्तध्यान के चार प्रकार हैं --
१. द्वेष से मलिन अमनोज्ञ शब्द आदि इंद्रिय-विषयों के एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ ।..
(उ २९।२६)
वियोग के लिए अत्यन्त चिता करना तथा उनकी एकाग्र-मन के सन्निवेश से जीव चित्त का निरोध पूनः प्राप्ति न हो--इसका निरन्तर स्मरण करना । करता है।
२. रोग के प्रतिकार के लिए देहासक्ति से व्याकूल बने ध्यान के प्रकार
हुए व्यक्ति का शुल, शिरोरोग आदि की वेदना के ..''अट रुई धम्म सुक्कं च नायव्वं ॥
वियोग के लिए तथा उनकी पून: अप्राप्ति के लिए
(आवनि १४६३) एकाग्र चिन्तन करना। हिंसाणुरंजितं रौद्रं, अट्ट कामाणुरंजितं । ३. राग से रक्त व्यक्ति का इष्ट विषयों तथा इष्ट अनुधम्माणरंजियं धम्म, शुक्ल झाणं निरंगणं ।।
भूतियों के अवियोग का एकाग्र अध्यवसाय तथा (आव २ पृ ८२)
उनके पूनः संयोग की अभिलाषा करना। ध्यान के चार प्रकार हैं
४ देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि वैभवशाली व्यक्तियों के आर्तध्यान-कामनाओं से अनुरंजित ।
विषय और वैभव की प्रार्थना करना, निदान रौद्रध्यान-हिंसा से अनुरंजित ।
करना । यह अज्ञान से संवलित और अत्यन्त अधम धर्म्यध्यान-धर्म से अनुरंजित । शुक्लध्यान- निरंजन ।
एक-एक ध्यान के असंख्य स्थान हैं । जीव रहंट की लक्षण घड़ियों की तरह इन स्थानों में आरोह-अवरोह करता तस्सऽक्कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । रहता है।
इट्राणिवियोगावियोगवियणानिमित्ताई।। अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए ।
(ध्यानशतक १५) धम्मसुक्काई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए।
आर्तध्यान के चार लक्षण हैं -
(उ ३०३५) १. आक्रन्दन-जोर-जोर से चिल्लाना । सुसमाहित मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर २. शोचन--- अश्रपूर्ण आंखों से दीनता दिखाना। धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। बुधजन उसे ३. परिदेवन-विलाप करन।। ध्यान कहते हैं।
४. ताडन-छाती, सिर आदि को पीटना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org