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ध्यान
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ध्यान की परिभाषा
माणसत्तंमि आयाओ जो धम्म सोच्च सहहे ।
१. ध्यान की परिभाषा तवस्सी वीरिय लधु संवुडे निधुणे रयं ।।
० प्रकार
(उ ३।११) । २. आर्तध्यान का निर्वचन मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें | ० प्रकार श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर, संवत ० लक्षण हो कर्मरजों को धुन डालता है।
० अधिकारी जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
० आर्तध्यान : लेश्या-अध्यवसाय-गति अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जति राइओ। ३. रौद्रध्यान का निर्वचन जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई ।
• प्रकार धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ ।।
० लक्षण (उ १४।२४,२५)
० अधिकारी जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती ।
• रौद्रध्यान : गति और लेश्या अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल और धर्म करने | ४. धम्यव्यान वाले की रात्रियां सफल होती हैं ।
० प्रकार
० लक्षण १२. लौकिक और लोकोत्तर उपकार
० अधिकारी परोपकारश्च द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो
• आलम्बन विविधान्नपानकाञ्चनादिप्रदानजनितः । स च नैकान्तिकः,
• अनुप्रेक्षाएं कदाचित्ततो विसूचिकादिदोषसम्भवतः उपकारासम्भवात् ।
० धर्म्यध्यान : लेश्या-अध्यवसाय-गति नाप्यात्यन्तिक: कियत्कालमात्रभावित्वात् । भावतो जिन
० निष्पत्ति प्रणीतधर्मसम्पादनजनितः, स चैकान्तिकः, कदाचिदपि
५. शुक्लध्यान का निर्वचन ततो दोषासम्भवात्, आत्यन्तिकश्च परम्परया शाश्वतिक
० प्रकार मोक्षसौख्यसम्पादकत्वात् ।
(नन्दीमवृ प १)
० लक्षण परोपकार के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । अन्न ० अधिकारी पानी, स्वर्ण आदि से सहयोग करना द्रव्य उपकार
• आलंबन अर्थात् लौकिक उपकार है। इससे विसूचिका आदि दोषों ० अनुप्रेक्षाएं की सम्भावना रहती है, इसलिए यह उपकार ऐकान्तिक • शुक्लध्यान : योग-लेश्या-गति नहीं है। यह अल्पकालीन होने के कारण आत्यन्तिक भी
० निष्पत्ति नहीं है। आर्हत धर्म का सम्पादन करना भाव उपकार
० केवली में शक्लध्यान कैसे? अर्थात् लोकोत्तर उपकार है। इससे कभी दोष संभव * शुक्लध्यान और योगनिरोध (द्र. केवलज्ञान) नहीं है, अत: यह ऐकान्तिक उपकार है। परम्परित रूप
६. वाचिक-कायिक ध्यान में शाश्वत मोक्षसुख का सम्पादक होने से यह आत्यन्तिक
७. ध्यान के सात विकल्प उपकार है।
८. दृष्टिवाद और ध्यान
९. ध्यान की योग्यता : भावना धर्मास्तिकाय- गतिसहायक द्रव्य ।
१०. ध्यान के अयोग्य
__(द्र. अस्तिकाय) ११. ध्यान का स्थान-काल-आसन धारणा--निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्युति ।
* ध्यान : तप का एक भेद
(द्र. तप) (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) * धर्म्य-शुक्ल ध्यान : उच्छित कायोत्सर्ग ध्यान-चित्त की एकाग्रता । योगनिरोध ।
(द्र. कायोत्सर्ग)
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