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धर्म की दुर्लभता
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के लक्ष्य से साधुओं को आहार आदि देना त्याग धर्म है । चागो णाम वेयावच्चकरणेण आयरियोवज्झायादीण महती कम्मनिज्जरा भवइ, तम्हा वत्थपत्तओसहादीहि साहू संविभागकरणं कायव्वं । ( दजिचू पृ १८ ) आचार्य, उपाध्याय और साधु की वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है । अत: साधु वर्ग में परस्पर वस्त्र, पात्र, औषध आदि का संविभाग करना त्याग धर्म है । अकिंचनता
अकिंणिया नाम सदेहे निस्संगता, निम्ममत्तणं । ( दजिचू पृ १८ ) शरीर के प्रति
अकिञ्चनता का अर्थ है-अपने निस्संगता, ममत्व का विसर्जन ।
मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ । अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ ।
अकिंचणे य जीवे (उ२९/४८ ) मुक्ति (निर्लोभता) से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन जीव अर्थलोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय होता है— उसके पास कोई याचना नहीं करता । ८. धर्म की दुर्लभता
माणुस्सं विग्गहं लद्धं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥ (उ३1८) मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, सहिष्णुता और अहिंसा को स्वीकार करते हैं ।
आहच्च सवणं लधुं, सद्धा सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे
परमदुल्लहा । परिभस्सई ॥
( उ ३1९ )
कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना परम दुर्लभ है । बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं ।
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सुइं च लधुं सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए || ( उ ३|१० ) श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में वीर्य ( पुरुषार्थ) होना अत्यन्त दुर्लभ है । बहुत लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते 1
६. श्रमणधर्म में मूलगुण- उत्तरगुण
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सविधे समणधम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा समवयारि
धर्मश्रद्धा के परिणाम
ज्जंति - संजमसच्चआकिंचणियबंभचेरगहणेण मूलगुणा गहिया भवंति तं जहा -संजमग्गहणणं पढम अहिंसा गहिया, सच्चगहणेणं मुसावादविरती गहिया, बंभचेरगणेण मेहुणविरती गहिया, अकिंचणियग्गहणेण अपरिग्गहो गहिओ अदत्तादाणविरती य गहिया । " खंतिमद्दवज्जवतवोग्गहणेण उत्तरगुणाणं गहणं कयं भवइ । (जिचू पृ १९ )
दशविध श्रमणधर्म में मूलगुण और उत्तरगुणों का समवतरण हो जाता है । यथा - संयमधर्म में अहिंसा महाव्रत, सत्य में मृषावादविरमण, ब्रह्मचर्य में मैथुनविरमण तथा आकिंचन्य में अदत्तादानविरमण और अपरिग्रह का समवतरण होता है। क्षांति, मार्दव, आर्जव और तप -- इनमें उत्तरगुण समवतरित होते हैं । १०. धर्म मंगल है
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥
(द १1१) धर्म उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं । जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं । धर्म शरण है
जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ ( उ २३।६८ ) जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है । ११. धर्मश्रद्धा के परिणाम
धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्मं च णं चयइ । अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयण - भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अव्वाबाह च सुहं निव्वत्तेइ । (उ२९।४) धर्मश्रद्धा से जीव वैषयिक सुखों की आसक्ति को छोड़ विरक्त हो जाता है, अगार-धर्म- गृहस्थी को त्याग देता है । वह अनगार होकर छेदन-भेदन आदि शारीरिक दुःखों तथा संयोग-वियोग आदि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है और निर्बाध सुख को प्राप्त करता है ।
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