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धर्म
दस धर्म
होता है । मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त हुआ जीव सब ऐश्वर्य-इन आठ मद-स्थानों का विनाश कर देता है। प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्रीभाव उत्पन्न आर्जव करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को अज्जवं नाम उज्जुगत्तणंति वा अकुडिलत्तणंति वा, विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।
एवं च कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकुव्वमाणस्स खंतीए णं परीसहे जिणइ। (उ २९।४७) य कम्मोवचयो भवइ । माया उदितीए णिरोहो कायव्वो
क्षमा से परीषहों पर विजय प्राप्त होती है। उदिण्णाए विफलीकरणं । (दजिचू पृ १८) क्षमासूत्र
आर्जव का अर्थ है-ऋजुता अथवा अकुटिलता।
ऋजुता करने वाले के कर्मनिर्जरा होती है, नहीं करने खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
वाले के कर्म का उपचय होता है। उदय में आने वाली मेत्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई ।।
माया का निरोध करना और उदयप्राप्त माया को विफल (आव ४।९)
करना आर्जव धर्म है। मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे
अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निण्हवे । क्षमा करें। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है। किसी के
सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिए। साथ मेरा वैर नहीं है।
(द ८।३२) मार्दव
व्यक्ति अनाचार का सेवन कर उसे न छिपाए न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे ।
और न अस्वीकार करे । वह सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त सुयलाभे न मज्जेज्जा, जच्चा तवसिबुद्धिए ।
___ और जितेन्द्रिय रहे। यह आर्जव धर्म है। (द ८।३०)
मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ॥ (उ मद्दवता--जातिकुलादीहिं परपरिभवाभावो ।
माया-विजय से ऋजुता आती है।
(दअचू पृ ११) अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं जाति, कुल आदि को लेकर दूसरे का तिरस्कार न अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे करे। अपना उत्कर्ष न दिखाए । श्रुत, लाभ, जाति, तप- धम्मस्स आराहए भवइ।
(उ २९।४९) स्विता और बुद्धि का मद न करे। यह मार्दव धर्म है। ऋजुता से जीव काया की सरलता, भाव की
अहं उत्तमजातीओ एस नीयजातित्ति मदो न सरलता, भाषा की सरलता और कथनी-करनी की कायव्वो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अक
समानता को प्राप्त होता है। कथनी-करनी की रेंतस्स य कम्मोवचयो भवइ। माणस्स उदितस्स निरोहो समानता से संपन्न जीव धर्म का आराधक होता है। उदयपत्तस्स विफलीकरणं । (दजिचू पृ १८) शौच
मैं उत्तम जाति का हूं, यह नीच जाति का है- सोयं नाम अलुद्धया धम्मोवगरणेसुवि, एवं च इस प्रकार का गर्व नहीं करना चाहिये। गर्व न करने से कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवति, अकुव्वमाणस्स कम्मोकर्मनिर्जरा और गर्व करने से कर्म का उपचय होता है। वचओ, तम्हा लोभस्स उदेंतस्स णि रोहो कायव्वो उदयउदय में आने वाले मान का निरोध और उदय प्राप्त पत्तस्स वा विफलीकरणमिति । (दजिचू पृ १८) मान का विफलीकरण मार्दव धर्म है।
शौच का अर्थ है-धर्मोपकरणों में भी लुब्ध न माणविजएणं मद्दवं जणयइ ।। (उ २९।६९) होना। अलुब्ध रहने वाले के कर्मों की निर्जरा और न मान-विजय से मृदुता आती है।
रहने वाले के कर्मों का उपचय होता है। अत: उदय में मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्ते णं आने वाले लोभ का निरोध और उदयप्राप्त लोभ को जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाई निट्ठवेइ।
विफल करना शौच धर्म है।
(उ २९।५०) त्याग मृदुता से जीव अनुद्धत मनोभाव को प्राप्त करता चागो-दाणं । तं अलुद्धेण निज्जरलैं साहूसु पडिहै। अनुद्धत मनोभाव वाला जीव मृदुभार्दव से संपन्न वायणीयं ।
(दअचू पृ ११) होकर जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और त्याग का अर्थ है-दान । अलुब्ध भाव से, निर्जरा
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