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चारित्र धर्म
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. धर्म
है, वह घत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण ५. लोकोत्तर धर्म (समाधि) को प्राप्त होता है।
लोउत्तरियो भावधम्मो दुविहो-सुतधम्मो चरित्तजरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई। धम्मो य।
__(दअचू पृ ११) जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥
लोकोत्तर भावधर्म के दो प्रकार हैं-श्रुतधर्म और
(द ८।३५) चारित्रधर्म । जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और ६.श्रुतधम इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक व्यक्ति धर्म का आचरण सुतधम्मो दुवालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जाणिकरे।
तव्वा भावा।
(दअचू पृ११) ३.धर्म के प्रकार
द्वादशांग गणिपिटक में प्रतिपादित भावों को जानना णामं ठवणाधम्मो दव्वधम्मो य भावधम्मो य ।
श्रुतधर्म है।
(द्र. श्रुतज्ञान) (दनि १७) ७. चारित्र धर्म धर्म के चार प्रकार हैं-नाम धर्म, स्थापना धर्म,
चरित्तधम्मो दसविहो-खमा महवं अज्जवं सोयं द्रव्य धर्म, भाव धर्म ।
सच्चं संजमो तवो चातो अकिंचणत्तणं बंभचेरं । द्रव्य धर्म
(दअचू पृ ११)
चारित्र धर्म के दश प्रकार हैं -- दव्वं च अत्थिकायो पयारधम्मो य... ।
१. क्षमा
६. संयम दव्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥
२. मार्दव
७. तप धम्मत्थिकायधम्मो पयारधम्मो य विसयधम्मो य ।..
३. आर्जव ८. त्याग (दनि १८, १९)
४. शौच
९. अकिंचनता द्रव्य धर्म के तीन प्रकार हैं
५. सत्य १०. ब्रह्मचर्य । १. द्रव्य धर्म-द्रव्य के पर्याय । २. अस्तिकाय धर्म-धर्म आदि अस्तिकायों का
सत्य, संयम, तप, ब्रह्मचर्य (द्र. संबद्ध नाम) स्वभाव ।
क्षमा ३. प्रचार धर्म---इन्द्रियविषयों का स्वभाव ।
खमा अक्कोसतालणादी अहियासेंतस्स कम्मक्खओ
भवति । तम्हा कोहोदयनिरोहो कातव्वो, उदयप्पत्तस्स माव धर्म
वा विफलीकरणं । एसा खमत्ति वा तितिक्खत्ति वा लोइय कुप्पावयणिय लोगुत्तरी...॥
कोहनिरोहत्ति वा ।
(आवचू २ पृ११६) (दनि १९)
आक्रोश, ताड़ना आदि को सहन करना क्षमा है। भावधर्म के तीन प्रकार हैं-लौकिक धर्म, कुप्राव
इससे कर्मक्षय होता है। क्रोध के उदय का निरोध और चनिक धर्म, लोकोत्तर धर्म ।
उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण क्षमा है । क्षमा, तितिक्षा ४. लौकिक-कुप्रावनिक धर्म
और क्रोधनिरोध एकार्थक हैं। गम्म पसु देस रज्जे पूरवर गाम गण गोट्रि राईणं ।
कोहविजएणं खंति जणयइ ।'' (उ २९।६८) सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो ण जिणेसं तु पसत्थो ।
क्रोधविजय से क्षमा उत्पन्न होती है।
(दनि २०) क्षमा के परिणाम लौकिक धर्म के प्रकार-गम्यधर्म, पशुधर्म, देशधर्म खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ । पल्हायणराज्यधर्म, परवरधर्म, ग्रामधर्म, गणधर्म, गोष्ठीधर्म और भावमुवगए य सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावराजधर्म ।
मुप्पाएइ । मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहि कुतीथिकों--कुप्रावचनिकों का धर्म सावद्य-अप्रशस्त काऊण निब्भए भवइ।
(उ २९।१८) होता है। जिनेश्वर देव का धर्म प्रशस्त होता है।
क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्रात
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