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ध्यान का स्थान-काल-आसन
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नक्षत्र
११. ध्यान का स्थान-काल-आसन
नक्षत्र-ज्योतिष्क देवों का एक भेद । निच्चं चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवज्जियं जइणो ।
नक्षत्र और उनके अधिष्ठाता देव ठाणं वियणं भणियं विसेसओ माणकालम्मि । तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं । कत्तिय रोहिणि मिगसिर अद्दा य पुणव्वसू य पूस्से य। भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स ।। तत्तो य अस्सिलेसा मघाओ दो फग्गुणीओ य ।।
(ध्यानशतक ३५,३७) हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य होइ अणराहा । मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील जेट्टा मूलो पुव्वासाढा तह उत्तरा चेवा ॥ व्यक्तियों से रहित विजन स्थान में रहे। ध्यानकाल में अभिई सवण धणिट्रा सतभिसया दो य होंति भवया। विशेष रूप से विजन स्थान में रहे।
रेवति अस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिवाडी। जहां मन, वचन और काया के योगों का समाधान
(अनु ३४१/१-३) (स्वास्थ्य) बना रहे और जो जीवों के संघटन से रहित
अग्गि पयावइ सोमे रुद्दे अदिती बहस्सई सप्पे । हो, वही ध्याता के लिए श्रेष्ठ ध्यानस्थल है।
पिति भग अज्जम सविया तद्रा वाऊ य इंदग्गी । कालोऽवि सोच्चिअ जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ ।
मित्तो इंदो निरती आऊ विस्सो य बंभ विण्ह य । न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥
वसु वरुण अय विवद्धी पूस्से आसे जमे चेव ।।
(ध्यानशतक ३८) ध्यान के लिए वही काल श्रेष्ठ है, जब मन, वचन
(अनु ३४२/१,२) और काया के योगों का समाधान बना रहे। ध्यान करने नक्षत्र
अधिष्ठाता देव वाले के लिए दिन-रात या वेला का नियमन नहीं है। १. कृत्तिका
१. अग्नि जच्चिअ देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ । २. रोहिणी
२. प्रजापति झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा॥ ३. मृगशिरा
३. सोम (ध्यानशतक ३९) ४. आा जिस देहावस्था (आसन) का अभ्यास हो चुका है
५. पुनर्वसु
५. अदिति और जो ध्यान में बाधा डालने वाली नहीं है, उसी में ६. पूष्य
६. बृहस्पति अवस्थित होकर ध्याता स्थित-खड़े होकर कायोत्सर्ग
७. अश्लेषा
७. सर्प आदि में, निषण्ण -बैठकर वीरासन आदि में अथवा
८. मघा
८. पितृ निपन्न-सोकर दण्डायतिक आदि आसन में ध्यान करे ।
९. पूर्वफाल्गुनी
९. भग सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देसकालचेट्ठासु । १०. उत्तरफाल्गुनी
१०. अर्यमा वरकेबलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥ ११. हस्त
११. सविता तो देसकालचेद्रानियमो माणस्स नत्थि समयंमि । १२. चित्रा
१२. त्वष्टा जोगाण समाहाणं जह होइ तहा यइयव्वं ॥ १३. स्वाति
१३. वायु (ध्यानशतक ४०,४१) १४. विशाखा
१४. इंद्राग्नि सभी देश, काल और चेष्टा आसनों में प्रवृत्त, १५. अनुराधा
१५. मित्र उपशान्त दोष वाले अनेक मुनियों ने ध्यान के द्वारा १६ ज्येष्ठा केवलज्ञान आदि की प्राप्ति की है।
१७. मूल
१७. निऋति अत: आगम में ध्यान के लिए देश, काल और १८. पूर्वाषाढा
१८. अप् आसन का कोई नियम नहीं है। जैसे योगों का समाधान १९. उत्तराषाढा
१९. विश्व हो, वैसे ही प्रयत्न करना चाहिए।
२०. अभिजित
२०. ब्रह्म (आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीया वृत्ति भाग-२, २१. श्रवण
२१. विष्णु पृष्ठ ६१ से ८१ में ध्यानशतक के १०५ श्लोक प्रकाशित २२. धनिष्ठा
२२. वसु हैं। इसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति माना गया है।) २३. शतभिषा
२३. वरुण
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