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संगमकृत उपसग
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तीर्थकर
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सामाणिअदेवढि देवो दावेइ सो विमाणगओ।
चहों का निर्माण किया । वे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ों से भणइ य वरेह महरिसि ! निप्फत्ती सग्गमोक्खाणं ॥ महावीर को काटते। मांस निकाल देते और शरीर पर उवहयमइविण्णाणो ताहे वीरं बहुप्पसाहेउं । मल-मूत्र विसर्जित कर देते । महावीर को इससे अतूल ओहीए निझाइ झायइ छज्जीवहियमेव ॥ वेदना हुई।
(आवनि ४९९-५०६) हाथी का निर्माण किया। हाथी ने सूंड में पकड़कर सौधर्मकल्प सभा में संगम नाम का एक सामानिक महावीर को आकाश में सात-आठ तल ऊपर उछाला । देवता था। वह अभव्य था। उसने कहा- देवराज इन्द्र दंतमूसल से पकड़ा और फिर भूमि पर गिराया । पहाड़ने जो यह कहा कि महावीर को कोई विचलित नहीं कर से भारी-भरकम पांवों से रौंदा। सकता, वे रागवश ऐसा कथन कर रहे हैं। ऐसा कौन हथिनी का रूप बनाया। हथिनी ने सुंड और दांतों मनुष्य है जिसे देवता विचलित न कर सके । मैं उसे आज से महावीर को बींधा, चीरा, मूत्र विजित किया और ही विचलित कर दूंगा।
उस मूत्रकीचड़ में पांवों से रौंदा। इन्द्र ने सोचा--- मैं अगर रोदूंगा तो उसका अर्थ पिशाच का रूप बनाया। उपसर्ग करने लगा । हागा, महावार दूसरा क सहार तपस्या कर रहा है। व्याघ्र का रूप बनाया। दाढ़ों और नखों से महावीर को इन्द्र मौन रहा । संगम महावीर के पास आया। उनकी विदारित करने लगा और फिर क्षारयुक्त मूत्र विसर्जित साधना का ग्यारहवां वर्ष चल रहा था ।
कर दिया। संगम ने सर्वप्रथम वज्रधलि की वर्षा की। आंख, अपने लक्ष्य में सफल न होने पर उसने राजा कान आदि सब इन्द्रियस्रोत धुल से भर गए। श्वास सिद्धार्थ का रूप बनाया और हृदयविदारक रुदन करने लेना भी कठिन हो गया। पर महावीर अपने ध्यान से लगा-पुत्र ! आओ ! हमारा रुदन सुनो। हमें मत तिलतुषभाग मात्र भी विचलित नहीं हुए।
छोड़ो। जब वह थक गया तो उस माया को समेट चींटियों फिर त्रिशला का रूप बनाकर निवेदन किया। का निर्माण किया। वे वज्रमुखी थीं। वे शरीर के चारों रसोइए का रूप बनाया। शिविर की रचना की। ओर चढ़कर महावीर को खाने लगीं। वे शरीर के महावीर के चारों ओर अपना आवास बना लिया। एक स्रोत से प्रविष्ट हो, दूसरे स्रोत से बाहर आतीं। रसोइए को खाना बनाने के लिए इधर-उधर पत्थर उन्होंने महावीर के शरीर को चलनी बना दिया। पर नहीं मिला तो उसने महावीर के दोनों पैरों के मध्य महावीर विचलित नहीं हुए।
तीव्र अग्नि जलाई । उस पर पात्र रखकर भोजन पकाने खटमल का निर्माण किया । वे वज्रमुखी थे। वे एक लगा। ही प्रहार में शरीर से खून निकाल देते।
चंडाल का रूप बनाया। महावीर की भुजाओं, गले महावीर विचलित नहीं हुए। उसने तिलचट्टों का एवं कानों में पक्षियों के पिंजरे लटका दिए। पक्षी चोंचों
से महावीर के शरीर को काटते, बींधते और वहीं मललगाते ।
मूत्र विसर्जित कर देते । जैसे-जैसे उपसर्ग होते, महावीर वैसे-वैसे ध्यान में प्रचंडवात का निर्माण किया। ऐसी प्रचंडवात जो और अधिक आत्मलीन होते। उन्होंने चिंतन किया- मेरु पर्वत को हिला सके। पर महावीर विचलित नहीं यह सब तुमने ही किया है । शुद्ध आत्मा के लिए कोई दंड हुए तो उन्हें उठा-उठाकर नीचे गिराया। नहीं होता।
चक्राकार हवा चलाई। उसमें महावीर का शरीर संगम ने बिच्छओं का निर्माण किया। वे डंक लगाने बेंत की तरह कंपित होने लगा। लगे।
कालचक्र का निर्माण कर संगम आकाश में स्थित नेवलों का निर्माण किया । वे तीक्ष्ण दाढ़ों से महावीर हआ और सोचा--यह चक्र मेरु पर्वत को भी चूर-चूर को काटते और मांस के टुकड़े ले जाते ।
कर सकता है। मैं इस चक्र को महावीर पर फेंकू । विषैले और क्रोधी सर्मों का निर्माण किया। वे उग्र- कालचक्र के प्रहार से महावीर हाथों के नख तक भूमि में विष थे। शरीर में दाहज्वर पैदा करने वाले थे। धंस गए।
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