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तीर्थ का विच्छेद
कमल पलास णिरुववचित्तो मा एवं जायह अह तु भगवतो भत्तीए मा तुब्भं सामिस्स सेवा अफला भवतुत्ति काउं पढितसिद्धाई गंधव्वपन्नगाणं अडयालीसं विज्जा सहस्सा इं देमि, ताण इमाओ चत्तारि महाविज्जाओ, तं जहा गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती ।
( आवनि ३१७ चू १ पृ १६० ) भगवान् ऋषभ सामायिक की साधना में लीन थे । एक दिन कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और बोले -- 'भंते ! आपने सबको विपुल भोग्यसामग्री दी, हमें किसी वस्तु का संविभाग नहीं दिया, अतः हमें भी कुछ दें'इस प्रकार प्रार्थना और तीनों संध्याओं में पर्युपासना करते हुए कुछ समय बीता। एक दिन धरणेन्द्र नागकुमार भगवान् की वन्दना के लिए उपस्थित | नमि-विनमि हुआ की प्रार्थना पर उसने कहा- सुनो ! परम योगी ऋषभ अकिंचन हैं, अपने शरीर पर भी इनका ममत्व नहीं है । ये किसी पर रुष्ट - तुष्ट नहीं होते। तुम लोगों ने भगवान् की पर्युपासना की है, वह निष्फल न हो, इसलिए मैं तुम्हें गंधर्व पन्नग की अड़तालीस हजार विद्याएं देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं । उनमें चार महाविद्याएं ये हैं-गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति ।
नागेन्द्र ने नमि को वैताढ्यगिरि की दक्षिणी विद्याधर श्रेणी में पचास नगर और विनमि को उत्तरी विद्याधर श्रेणी में साठ नगर निवास के लिए प्रदान किये । २८. तीर्थ का विच्छेव
राया आइन्चजसो महाजसे अइबले अ बलभद्दे । बलवtरिए कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ॥ .....कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुवोच्छेओ ॥ अष्टौ पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्तः, अष्टौ बा तीर्थकरान् यावदिति । तत ऊर्ध्वं मिथ्यात्वमुपगता: । कालेन गच्छता मिथ्यात्वमुपगताः कदा ? नवमजिनान्तरे, किमिति ? यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति ।
( आवनि ३६३, ३६५ हावृ १ पृ १०५ ) चक्रवर्ती भरत के पश्चात् आदित्ययश, महायश अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कृतवीर्य, जलवीर्य, दंडवीर्य - इन आठ राजाओं तक माहन - श्रावकों को दान देने की विधि चली । अथवा आठ तीर्थंकरों तक साधु-परंपरा अविच्छिन्न चली । तत्पश्चात् दृष्टिकोण मिथ्या हो गया ।
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तीर्थंकर
नौवें अर्हत् सुविधि के पश्चात् साधु-वर्ग का विच्छेद हुआ ।
तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्रप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यवान्तराले । ( नन्दीमवृप १३० ) आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ और नौवें तीर्थंकर सुविधि के अंतराल काल में तीर्थ का व्यवच्छेद हुआ ।
( नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थंकर शांति के समय तक सवथा तीर्थच्छेद रूप असंयति पूजा हुई है । इसे दसवां आश्चर्य माना गया है देखें ठाणं १०।१६० का टिप्पण । )
अर्हत् अजित
अक्खे जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा ।
( आवनि १०८० )
तब उनकी माता इसलिए उनका नाम
जब अजितप्रभु गर्भ में आए, विजया द्यूतक्रीड़ा में विजित हुई, अजित रखा गया ।
अग्निजीवों की बहुलता क्यों ?
जया पंचसु भरहेसु पंचसु एरवयएसु उत्तमक पत्ता मणुया भवति तदा सव्बबहुअगणिजीवा णायव्वा । जेण तत्थ लोग बहुल्लयाए पयणादीणिवि चेव बहूणि भवंति । या असामी आसि तदा मिहुणधम्मभेदगुणेण चिरजीवियतणेण य बहुपुत्तणत्तुका मणुया जाया, अतो अजियसामिकाले उत्तमकट्टपत्ता मणुया आसि ।
(आवचू १ पृ ३९)
जब पांच भरत और पांच ऐरावत में मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सबसे अधिक अग्नि के जीव होते हैं। क्योंकि लोगों की बहुलता होने पर पचन - पाचन आदि क्रियाएं भी प्रचुर होती हैं । अर्हत् अजित के काल में अग्नि के जीव पराकाष्ठा प्राप्त थे, क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा को प्राप्त थी । यौगलिक परम्परा का अन्त हो चुका था । लागों का आयुष्य लम्बा था। एक-एक परिवार में पुत्र-पौत्रों की संख्या भी अधिक थी ।
सर्वाधिक मनुष्य और सर्वबहु अग्निजीव
अव्वाघाए सव्वासु कम्मभूमीसु जं तदारंभा । मस्सा होंतजियजिदिकालम्मि | ( विभा ५९९ ) अर्हत् अजित के शासनकाल में सब कर्मभूमियों
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