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तीथंकर
नमि-विनमि की प्रार्थना
अहंत् ऋषम का अर्थ-चतुष्टय
तुज्झ पिता एरिसं विभूति जहित्ता एकल्लओ अवसणो उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामो- हिंडति । भरहो भणति-मम कतो विभूती तारिसी क्खाओ चउरासीति समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समण- जारिसी तातस्स ? जदिन पत्तियह एह जामो पासामो। संपदा होत्था, बंभिसुंदरिपामोखाणं अज्जियाणं तिन्नि भरहो निप्फिडति सव्ववलेणं । मरुदेवा वि एक्कहिं सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपदा होत्था,
हत्थिमि विलग्गा जाव पेच्छति 'छत्तातिच्छत्तं सुरसमूहं च सेज्जंसपामोक्खाणं समणोवासगाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ थुवतं । भरहस्स य वत्थाभरणाणि ओमिलायंताणि । पंचासयसहस्सा सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंच भर हो भणति - दिट्ठा ते पुत्तविभूती ? कनो मम एरिसा ? सयसाहस्सीओ चउप्पन्नं च सहस्सा चत्तारि सहस्सा सत्त सा तोस एणं चितेतुमारद्धा, अपुव्वकरणं अणपविट्रा। सया पन्नासा चोदसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं णव
जातीसरणं नत्थि, जेण वणस्सतिकातिएहितो उव्वटिका। सहस्सा ओहिन्नाणीणं वीससहस्सा केवलणाणीणं, वीस
तत्थेव हथिखंधवरगताए केवलनाणं, उप्पणं सिद्धा।
इमाए ओस प्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा।। सहस्सा छच्च सया बेउव्वियाणं, बारस सहस्सा छच्च
(आवनि १३२० च २ पृ २१२) सया पन्नासा विपुलमतीणं, बारससहस्सा छच्च सया
भरत के वैभव को देखकर मरुदेवा कहती हैपन्नासा वादीणं, बावीस सहस्सा णव य सया अणुत्तरोववातियाण ......"वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं
भरत ! तुम्हारा पिता ऋषभ ऐसी विभूति को छोड़
निर्वस्त्र अकेला घूम रहा है। भरत ने कहा- पिताश्री अज्जियासहस्सा सिद्धा, सट्टि अंतेवासिसहस्सा सिद्धा।।
जैसी विभूति मेरे पास कहां है ? यदि आपको विश्वास न
(आवचू १ पृ १५८) ऋषभसेन आदि ८४ हजार श्रमण
हो तो चलिए, वहां जाकर देखें। भरत ने अपनी सेना के
साथ प्रस्थान किया। हाथी पर आरूढ़ हो मरुदेवा ने भी ब्राह्मी-सुंदरी आदि ३ लाख साध्वियां
प्रस्थान किया। उसने ऋषभ की स्तुति करते हए महद्धिक श्रेयांस आदि ३ लाख ५० हजार श्रावक
देवों को देखा। उनके सामने भरत के वस्त्र-आभरण सुभद्रा आदि ५ लाख ५४ हजार श्राविकाएं
फीके लगने लगे। भरत ने कहा-आपने अपने पुत्र की चौदहपूर्वी साधु ४७५०
विभूति को देखा? मेरे पास कहां है ऐसी विभूति ! यह अवधिज्ञानी साधु ९०००
देख-सुन मरुदेवा स्वयं चिंतन में डूब गई। वह अपूर्वकरणकेवलज्ञानी साधु २००००
अद्भुत भावणि में आरूढ़ हुईं। उसे जातिस्मृति नहीं विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी १२६५०
हुई, क्योंकि वह वनस्पति से उद्वृत्त हुई थी। परम वैक्रियलब्धिधर २०६००
विशुद्ध अध्यवसाय, लेश्या और परिणामधारा से उसे हाथी वादी १२६५०
के हौदे पर बैठे-बैठे ही कैवल्य उत्पन्न हो गया। इस अनुत्तर विमान में उत्पन्न २२९००
अवसर्पिणी काल में वह सर्वप्रथम सिद्ध हुई। । २०००० साधु, ४०००० साध्वियां,
२७. नमि-विनमि की प्रार्थना सिद्ध कल ६०००० अन्तेवासी
नमिविनमीणं जायण नागिंदो विज्जदाण वेअड्ढे । २५. अर्हत ऋषभ का प्रमादकाल
उत्तरदाहिणसेढी
सट्ठीपण्णासनगराइं॥ वाससहस्सं उग्गं तवमाइगरस्स आयरंतस्स ।
दुवे नमिविणमिणो कच्छमहाकच्छाणं पुत्ता उवट्टित्ता, जो किर पमायकालो अहोरत्तं तु संकलिअं॥
भगवं विन्नवेन्ति -भगवं! अम्हं तुब्भेहि संविभागो ण
केणवि वत्थणा कतो, स पट्टे बद्धकवया ओलग्गंति अर्हत ऋषभ ने एक हजार वर्ष तक उग्र तप किया। विन्नति य, तातो! तुब्भेहि सव्वेसि भोगा दिन्ना इस तप:साधनाकाल में उनके प्रमाद-काल को संकलित अम्हेऽवि देह, एवं तिसझं ओलग्गति, एवं कालो किया जाये तो वह एक दिन-रात का होता है।
वच्चति, अन्नया धरणो णागकूमारिंदो भगवं वंदओ २६. मरुदेवा प्रथम सिद्ध
आगओ, इमेहि य विन्नवितं, सो ते तह जातमाणे .."आराहणाए मरुदेवा ओसप्पिणीए पढम सिद्धो॥ भणति-भो सूणह भगवं चत्तसंगो गतरोसतोसो सा मरुदेवा भरहविभूति पासित्ता भणति भरहं, ससरीरेऽवि णिम्ममत्तो अकिंचणो परमजोगी णिरुद्धासवो
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