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अर्हत् ऋषभ की शिष्य सम्पदा
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तीर्थकर
निमित्त
नहीं जानते थे। भिक्षा के अभाव में सभी शिष्य तापस अहव निमित्ताईणं सुहसइयाइ सुहक्खपूच्छा वा। हो गये। इच्चेवमाइ पाएणुप्पन्न
उसभकालम्मि ॥ प्रथम भिक्षाग्रहण (आवभा २९)
संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण"" नैमित्तिकों से सुख-दुःख के विषय में पृच्छा भी
घुटुं च अहोदाणं दिव्वाणि अ आयाणि तूराणि । ऋषभ के समय में ही प्रारंभ हई ।
देवा य संनिवइआ वसुहारा चेव वुढा य ।। चार वर्ग
गयउर सिज्जसिक्खुरसदाण..." ॥ उग्गा भोगा रायण्ण खत्तिआ संगहो भवे चउहा ।
(आवनि ३१९,३२१,३२२) आरक्खि गुरु वयंसा सेसा जे खत्तिआ ते उ ।।
ऋषभ ने प्रव्रज्या के एक वर्ष पश्चात् गजपुर में
(आवनि २०२) अपने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथ से इक्षुरस की प्रथम भिक्षा राज्यव्यवस्था के लिए अर्हत् ऋषभ ने चार वर्ग ग्रहण का। उस समय पाच दिव्य प्रकट हुए-आकाश में स्थापित किये
देवों द्वारा अहोदानं की ध्वनि, देवदुंदुभि, रत्नवृष्टि, उग्र-आरक्षक ।
वस्त्रोत्क्षेप, गंधोदक-पुष्पवृष्टि । भोज-गुरुस्थानीय।
२३. ऋषभ की प्रथमता राजन्य--वयस्य ।
से य उसमे कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरे क्षत्रिय-इन तीनों के अतिरिक्त ।
पढमजिणे पढमतित्थयरे। (आवचू १ पृ १६०)
अर्हत् ऋषभ इस युग के प्रथम राजा, प्रथम भिक्षा२२. ऋषभ का अभिनिष्क्रमण
चर, प्रथम जिन और प्रथम तीर्थंकर थे। चउरो साहस्सीओ लोअं काऊण अप्पणा चेव । जं एस जहा काही तं तह अम्हेऽवि काहामो ॥
२४. अर्हत ऋषभ की शिष्य-सम्पदा उसभी वरवसभगई चित्तूणमभिग्गहं परमघोरं ।
तत्थ समोसरणे भगवं सक्कादीणं धम्म परिकहेति । वोसट्ठचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ।।
तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण णवि ताव जणो जाणइ का भिक्खा ?
पव्वइतो। तेण तिहिं पृच्छाहिं चोहसपूव्वाइं गहिताई. केरिसा व भिक्खयरा ? उप्पन्ने विगते धुवे। तत्थ बंभीवि पव्वइया । भरहो ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाया ।। सावओ। सुंदरीए ण दिन्नं पव्वइउं, मम इत्थिरयणं
(आवनि ३१५,३१६ भा ३१) एसत्ति । सा साविगा, एस चउव्विहो समणसंघो । ते य चउहिं सहस्सेहिं सद्धि एगं देवदूसमादाय जाव तावसा भगवतो णाणं उप्पन्नं ति कच्छसुकच्छवज्जा सव्वे पव्वइते । उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं भगवतो सगासे पव्वइता । (आवचू १ पृ १८२) चीवरधारी होत्था। तेसिं पंचमुट्रिओ लोओ सयमेव, कैवल्यप्राप्ति के पश्चात अहंत ऋषभ ने धर्मदेशना भगवतो पुण सक्कवयणेण कणगावदाते सरीरे जडाओ दी। उस समवसरण में देव, मनुष्य आदि सभी उपस्थित अंजणे रेहाओ इव रेहंतीओ उवलभतिऊणट्टिताओ तेण थे। चक्रवर्ती भरत का पुत्र ऋषभसेन धर्मदेशना सुनकर चउमुट्टिओ लोओ।
(आवचू १ पृ १६१) प्रवजित हुआ। उसने उत्पन्न, विगत और ध्रुव-इन अर्हत् ऋषभ चार हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित तीन निषद्याओं से चौदह पूर्वो का ज्ञान ग्रहण किया। हए। ऋषभ के पास एक देवदूष्य वस्त्र था जो साधिक ऋषभसेन ऋषभ भगवान् का प्रथम साधु, प्रथम गणधर एक वर्ष तक उनके पास रहा।
था। ब्राह्मी (ऋषभपुत्री) प्रथम साध्वी बनी । भरत प्रथम ___इन्द्र की प्रार्थना पर ऋषभ ने चारमुष्टि केशलोच श्रावक और सुंदरी (ऋषभपुत्री) प्रथम श्राविका बनी। किया । अन्य मुनियों ने पंचमुष्टि केशलोच किया। -इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई। कच्छ
ऋषभ शरीर के व्युत्सर्ग और त्याग का संकल्प कर और सुकच्छ के अतिरिक्त शेष ३९९८ तापस ऋषभ के ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। लोग भिक्षा की विधि तीर्थ में प्रव्रजित हो गये।
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