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तीर्थंकर
चित्रकला
भरहस्स रूवकम्मं नराइलक्खणमहोइयं बलिणो । माणुम्माणवमाण पमाणगणिमाइवत्थूणं ॥
( आवभा १४ ) भरत को चित्रकला और बाहुबली को स्त्री-पुरुष के लक्षण तथा वस्तु के मान, उन्मान, अवमान, प्रमाण, संख्यान आदि का प्रशिक्षण दिया ।
वाहन
माई दोराइ पोआ तह सागरंमि वहणाई । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेयणत्थं वा ॥ ( आवभा १५ ) धागे में मणि आदि पिरोने की कला, जलपोत निर्माण और वाहन व्यवहार-- दंडविधान, कार्य-परिच्छेद के लिए लिखित प्रमाण -- इन सबका प्रवर्तन किया । दंडनीति
हक्काराई सत्तविहा अहव सामभेयाई । जुदाई बाहुजुद्धाइयाई वट्टाइयाणं वा ॥
( आवभा १६ )
हाकार, माकार, धिक्कार, परिभाषित - अल्पकालीन कारावास, मंडलिबंध - सीमा से बाहर जाने का निषेध, गृहबंध, दंडप्रहार आदि दंडनीतियां अथवा चार प्रकार की नीतियां - साम, दाम, दण्ड और भेद, बाहुयुद्ध आदि युद्ध - इन सबका प्रवर्तन किया ।
चिकित्सा
रोगहरणं तिगिच्छा अत्थागम सत्थमत्थसत्यंति । निअलाइजमो बन्धो घाओ दण्डाइताणणया || ( आवमा १८ ) रोगहरण के लिए चिकित्साशास्त्र, अर्थार्जन के लिए अर्थशास्त्र, बंध - निगड आदि से बांधना, घात - दंड आदि से ताड़ना देना – इन सबका प्रवर्तन हुआ ।
ईसत्थं धणुवेओ उवासणा मंसुकम्ममाईया | गुरुरायाणं वा उवासणा पज्जुवासणया ।।
( आवमा १७ ) बाण, शस्त्र, धनुर्वेद और दाढ़ी-मूंछ आदि कटाना, पर्युपासना -- गुरु, राजा आदि की उपासना करना — इन सबका प्रवर्तन किया ।
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वस्त्र-माल्य
पुव्विं कयाइ पहुणी सुरेहि रक्खाइ कोउगाई च । तह वत्थगंधमल्लालंकाराकेसभूसाई
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तं दट्ठूण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि । विहिणा चूलाकम्मं बालाणं चोलया नाम ॥ ( आवभा २१,२२ )
देवों ने ऋषभ के रक्षा आदि कौतुक कर्म किए । वस्त्र, गंध, माल्य, अलंकार आदि धारण करवाए । केशविन्यास किया |
स्तूप
उसे देखकर लोगों में भी अलंकार की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। बच्चों के चूलाकर्म का भी उसी समय में प्रवर्तन हुआ ।
विवाह
स्तूप
दट्ठे कयं विवाहं जिणस्स लोगोऽवि काउमारद्धो । गुरुदत्तिया य कण्णा परिणिज्जंते ततो पायं ॥
( आवमा २४ ) सर्वप्रथम ऋषभ का विवाह हुआ। उस पद्धति के आधार पर प्रजा में भी विवाह का प्रचलन हो गया । प्रायः गुरुजनों द्वारा प्रदत्त कन्या के साथ ही विवाह किए जाने की परंपरा पड़ी ।
मृतककर्म
मयं मयस्स देहो तं मरुदेवीइ पढमसिद्धत्ति । देवेहि पुरा महियं भावणया अग्गिसक्कारो ॥ ( आवभा २६ ) मरुदेव प्रथम सिद्ध हुई । देवों ने सबसे पहले उनकी देह का दाह संस्कार किया। फिर वह मृतकर्म संस्कारविधि प्रजा में प्रचलित हो गई ।
सो जिणदेहाईणं देवेहि कओ चिआसु थूभाई । सद्दो य रुण्णसद्दो लोगोवि तओ तहा पगओ ॥
( आवभा २७ ) भगवान् ऋषभ जब मुक्त हो गए, तब देवों ने उनके शरीर को चिता में जलाया और उनकी स्मृति में वहां स्तूप बनाकर रुदन करने लगे। तब से लोगों में मृतक के पीछे रोने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई और स्तूप निर्माण की प्रथा चली ।
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