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तीथंकर
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अर्हत् वासुपूज्य
(भरत-ऐरावत-विदेह) में अग्नि का प्रयोग करने वाले था, इसलिए उसने अपने पुत्र को 'चन्द्रप्रभ' कहकर गर्भज मनुष्य सबसे अधिक थे। उस समय अग्नि जीवों पुकारा। उनकी चंद्र जैसी आभा थी। की उत्पत्ति में महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था। अर्हत् सुविधि अर्हत् संभव
सव्वविहीसु अ कुसला गब्भगए तेण होइ सुविहिजिणो। अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेग वच्चई भयवं ।..
(आवनि १०८४) (आवनि १०८१) पुत्र का गर्भ में अवतरण होते ही जननी रामा ने जब सभवप्रभ गर्भ में थे, तब उनके प्रभाव से अत्य- सब विधिविधानों में अत्यधिक कुशलता अजित की, धिक धान्य संभूत हुआ, अतः उनका नाम संभव रखा इसलिए पुत्र का नामकरण सुविधि हुआ। गया।
अर्हत् शीतल अहंत अभिनन्दन
..."पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं ॥ ..."अभिणंदई अभिक्खं सक्को अभिणंदणो तेण ।।
(आवनि १०८४) (आवनि १०८१) पिता ददरथ की पित्तदाहजन्य पीड़ा औषधि से शांत गर्भकाल से लेकर निरन्तर शक्र ने जिनका पुनः पुनः नहीं हई, पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तअभिनन्दन किया, वे अभिनंदन की अभिधा से अभिहित दाह का शमन हो गया, अतः शिशु का नाम शीतल रखा
गया। अर्हत् सुमति
सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादालादजनकत्वाच्च जणणी सव्वत्थ विणिच्छएस सूमइत्ति तेण सूमइजिणो। शीतल इति, तत्थ सव्वेऽपि अरिस्स मित्तस्स वा उरि (आवनि १०८२) सीयलघरसमाणा।
(आवहाव २ पृ९) जब सुमति गर्भ में थे, उस समय माता मंगला ने जो सब प्राणियों का सन्ताप दूर कर आह्लाद उत्पन्न प्रत्येक न्याय-व्यवहार में सुमति-प्रभूत बुद्धिमत्ता का करता है, सबके लिए शीतगृह की भांति सुखकर है, वह परिचय दिया (दो माताओं के पाण्मासिक कलह का शीतल है। कुशलता से उपशमन किया), इस कारण से उनका नाम अर्हत श्रेयांस सुमति रखा गया।
महरिहसिज्जारुहणंमि डोहलो तेण होइ सिज्जंसो।" अर्हत् पद्मप्रम
(आवनि १०८५) ..."पउमसयणंमि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो। राजा परम्परा से प्राप्त देवतापरिगृहीत शय्या की
(आवनि १०८२) अर्चा करता था। जो उस शय्या पर बैठता, उसे देवता गर्भवती माता सुसीमा को पद्मशय्या में शयन करने द्वारा उपसर्ग दिया जाता। माता विष्णुदेवी को उस पर का दोहद उत्पन्न हुआ, अतः पुत्र का नाम पद्म रखा। बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस पर बैठी किंतु गया। उनकी पद्म जैसी आभा थी।
गर्भ के प्रभाव से उसका कुछ भी अश्रेय-अहित नहीं अर्हत् सुपावं
हुआ, अतः शिशु का नाम 'श्रेयांस' रखा गया। गब्भगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो। अर्हत् वासुपूज्य
(आवनि १०८३) ..."पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसूपूज्जो।। जब सुपार्श्वप्रभु गर्भस्थ हुए, तब माता पृथ्वी के
(आवनि १०८५) पार्श्वभाग सुन्दर हो गए, अतः उन्हें सुपार्श्व कहा गया।
वासुपूज्य जब माता जया की कुक्षि में अवतरित हए, अर्हत् चन्द्रप्रम
तब वासव (इन्द्र) ने पुनः पुनः जननी की पूजा की, ..."जणणीए चंदपियणमि डोहलो तेण चंदाभो॥ इसलिए उनका नामकरण 'वासुपूज्य' हुआ।
(आवनि १०८३) वसूणि-रयणाणि, वासवो वेसमणो सो वा अभिमाता लक्ष्मणा को चंद्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ गच्छति ।
(आव २ पृ १०)
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