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तीर्थंकर के शुभ
१०. तीर्थंकर त्राता
परतातारो तित्थकरा, कहं ? ते कयकिच्चावि भगवंतो भवियाणं संसारसमुद्दपार कंखिणो धम्मोवएसेण तारयति । ( दजिचू पृ १११ ) सामाइयाइया वा वयजीवणिकायभावणा पढमं । एस धम्मोवाओ जिणे हि सव्वेहि उवइट्टो ॥
( आवनि २७१ ) तीर्थंकर पर त्राता हैं । कैसे ? यद्यपि वे कृतकृत्य होते हैं, फिर भी भव्य जीवों को संसार-समुद्र से पार पहुंचाने के लिए सामायिक, व्रत, जीवनिकाय और भावना विषयक धर्मोपदेश करते हैं ।
कर्म.....
भगवान् सर्वज्ञोऽत एव भव्यानेव विबोधयति, अभव्यानां बोधनोपायस्य कस्याप्यभावात् । तस्य भगवतस्त्रैलोक्याधिपतेः पक्षपातनिरपेक्षमविशेषेण सद्धर्म्मदेशना कुर्वतो विभिन्नस्वभावेषु प्राणिषु तथा तथा स्वभाव्याद् विबोधा विबोधकारिणी पुरुषोलूक कमलकुमुदादिष्वादित्यस्य प्रकाशन क्रियेव सद्धर्म्मदेशन क्रियोपजायते ।
त्वद्वाक्यतोSपि केषाञ्चिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य नाम नालोक हेतवः ॥ नैवाद्भुतमुलुकस्य, प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ ( आवमवृप १०५ ) अर्हत् सर्वज्ञ होते हैं, अतः वे भव्यों को ही उद्बोध देते हैं | अभव्यों को संबुद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है ।
तीन लोक के अधिपति तीर्थंकर निष्पक्षभाव से देशना देते हैं, श्रोता अपनी क्षमता के अनुसार उसे ग्रहण करते हैं । जैसे सूर्य की प्रकाशनक्रिया पुरुष, उल्लू, कमल, कुमुद आदि के स्वभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में होती है, वैसे ही धर्मदेशना की क्रिया के विविध रूप हैं ।
आश्चर्य ! भंते ! तुम्हारी वाणी सुनकर भी कोई अबोध रह जाता है। सूर्य की रश्मियां किसे आलोकित नहीं करतीं ? उल्लू स्वभाव से ही क्लिष्ट चित्त वाला है । उसे प्रभास्वर किरणों में भी अंधकार का आभास होता है - इसमें आश्चर्य कैसा ?
११.
. कैवल्य-काल
तेवीसाए तित्थगराणं सूरुग्गमणमुहुत्ते एगराइयाते पडिमाए णाणं उप्पन्नं, वीरस्स पाईणिगामिणीए । अन्ने भांति — बावीसाए पुग्वण्हे मल्लिवीराणं अवरण्हे । ( आवचू १ पृ १५८)
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तीर्थंकर
तेईस तीर्थंकरों को एकरात्रिकी प्रतिमा में, सूर्योदयकाल (पूर्वा) में तथा महावीर को अपराह्न में कैवल्य उत्पन्न हुआ। एक मान्यता के अनुसार बाईस तीर्थंकरों को पूर्वाह्न तथा अर्हत् मल्लि और महावीर को अपरा में कैवल्य उत्पन्न हुआ ।
१२. तीर्थंकर और अनशन
..... सव्वेवि य तित्थयरा पातोवगया उ सिद्धिगया || (उशावृ प २३७) सभी तीर्थङ्करों की सिद्धि प्रायोपगमन / पादपोपगमन अनशन में होती है ।
१३. तीर्थंकर के शुभ कर्मप्रकृतियां
पसत्थाणं वेदणिज्जाउयनामगोत्ताणं अणुभावं पडुच्च उदयभावस्त उत्तमा । नामस्स एक्कतीसाए पसत्थुत्तरपगडीणं । तं जथा – मणुस्सगति पंचिदियजाति ओरालियं तेयगं कंमगं समचतुरंससंठाणं ओरालियं गोवंगं, वइरोसभणाराय संघयणं वण्णरसगंधफासा अगुरुलघुं उवघातं पराघातं ऊसासं पसत्थविहगगती तसं बादरं पज्जत्तयं पत्तेयं थिरथिराणि सुभासुभाणि सुभगं सुसरं आज्जं जसकित्ती निम्मानगं तित्थगरमिति । वेदणिज्जं मणुस्साऊ उच्चागोयं वा । एतेसि चोत्तीसाए उदइयभावेहि ( आवचू २ पृ ६८ ) तीर्थंकरों के प्रशस्त वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र - इन चार कर्मों की चौंतीस प्रकृतियां अनुभाव की अपेक्षा से उत्तम होती हैं -
उत्तमा ।
१. मनुष्य गति
२. पञ्चेन्द्रिय जाति
३. औदारिक शरीर
४. तेजस शरीर
५. कार्मण शरीर
६. समचतुरस्र संस्थान ७. औदारिक अंगोपांग
८. वज्र ऋषभनाराच संहनन ९-१२ . वर्ण - गंध-रस स्पर्श १३. अगुरुलघु १४. उपघात
१५. पराघात
१६ उच्छ्वास
१७. प्रशस्त विहायो गति १८. त्रस
१९. बादर
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२०. पर्याप्त
२१. प्रत्येक
२२. स्थिर
२३. अस्थिर
२४. शुभ
२५. अशुभ
२६. सुभग
२७ सुस्वर
२८. आदेय
२९. यशः कीर्ति
३०. निर्माण
३१. तीर्थंकर ३२. वेदनीय
३३. मनुष्यायु ३४ उच्चगोत्र |
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